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शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

बोध-कथाएँ - 5. सत्संग ही मजबूत गढ़ है “महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ” नामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा

॥ॐ श्रीसद्गुरवे नमः॥

बोध-कथाएँ - 5. सत्संग ही मजबूत गढ़ है


(“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँनामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)

मेरे पूज्य गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी थी कि जहाँ रहो, सत्संग करो। सत्संग की विशेषता पर अपने देश में घटित प्राचीन काल की एक कथा है -
गोपीचन्द एक राजा थे। उनकी माता बहुत बुद्धिमती और योग की ओर जानेवाली साधिका थीं। वे योग जानती थीं और करती भी थीं। उनके हृदय में ज्ञान, योग और भक्ति भरी थीं।
गोपीचन्द वैरागी हो गये थे। गुरु ने कहा, “अपनी माता से भिक्षा ले आओ।वे माता से भिक्षा लेने गये। माताजी बोलीं, “भिक्षा क्या दूँ! थोड़ा-सा उपदेश लेकर जाओ। वह यह है कि बहुत मजबूत किले (गढ़) के अंदर रहो। बहुत स्वादिष्ट भोजन करो और मुलायम शय्या पर सोओ। यही भिक्षा है जाओ।गोपीचन्द बोलें, “आपकी ये बातें मेरे लिए पूर्णतः विरुद्ध हैं।
माताजी बोली, “पुत्र! तुमनें समझा नहीं। मजबूत गढ़ सत्संग है। इससे भिन्न दूसरा कोई मजबूत गढ़ नहीं है। जिस गढ़ में रहकर काम-क्रोध आदि विकार सताते हैं, जिनसे मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता; पशु एवं निशाचर की तरह हो जाता है, वह गढ़ किस काम का! संतों का संग ही ऐसा गढ़ है, जिसमें रहकर विकारों का आक्रमण रोका जाता है और दमन करते-करते उनका नाश भी किया जाता है।
फिर सुस्वादु भोजन तथा मुलायम शय्या के लिए माता बोलीं, “कैसा भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो, भूख नहीं रहने से वह स्वादिष्ट नहीं लगेगा। इसलिए खूब भूख लगने पर खाओ और जब तुमको खूब नींद आये, तब तुम कठोर वा कोमल जिस किसी भी बिछौने पर सोओगे, वही तुम्हें मुलायम मालूम पड़ेगा।
यह शिक्षा सबके लिए धारण करने के योग्य है। गुरु महाराज कहते थे, “जहाँ रहो, सत्संग करो। स्वयं सीखो और जहाँ तक हो सके, दूसरों को भी सिखाओ, जिससे उनको भी लाभ हो।
(सत्संग-सुधा, भाग 2, पृष्ठ 12)
श्री सद्गुरु महाराज की जय

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

बोध-कथाएँ - 4. लालच बुरी बलाय (“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ” नामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)


॥ॐ श्रीसद्गुरवे नमः॥

बोध-कथाएँ - 4. लालच बुरी बलाय(“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँनामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)

एक आदमी को धन का बड़ा लालच था। उसको मालूम हुआ कि उसके पास जितनी जमीन है, यदि उसको बेच ले, तो बिक्री के उतने रुपयों से दूसरी जगह अधिक जमीन मिल जाएगी। यह जानकर उसने अपनी सारी जमीन बेच दी और वहाँ गया, जहाँ अधिक जमीन मिलनेवाली थी। वहाँ के जमीनवाले ने रुपये लेकर उससे कहा कि दिनभर में तुम जितनी जमीन घूमकर सायंकाल मेरे पास आ जाओगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।
वह लालच के मारे जमीन की ओर बढ़ा। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता जाता, वैसे-वैसे उसको अच्छी-से-अच्छी जमीन मिलती जाती। इसलिए वह आगे-ही-आगे बढ़ता गया। जब सूर्यास्त होने में थोड़ा समय बचा, तब उसको याद आया कि शाम तक उसे लौटकर जमीनवाले के घर पर भी पहुँचना है और दिन थोड़ा है। यह सोचकर वह उधर से लौट पड़ा।
धीरे-धीरे चलने से शाम तक वह नहीं पहुँच पाता, इसलिए उसने दौड़ लगाना शुरू किया। दौड़ते-दौड़ते संध्या होने तक तो वह जमीनवाले के घर पहुँच गया; परन्तु परेशानी के कारण तुरंत बेहोश होकर गिर पड़ा और मर गया। (किसी ने कहा कि यह लालची आदमी उतनी ही जमीन पाने का अधिकारी है, जितनी जमीन पर वह मरा पड़ा है। उतनी ही जमीन पर वह अन्यत्र दफना दिया गया।)
यही हालत सब लोगों की है। संसार की वस्तुओं को देखकर बड़ा लालच होता है। लेते-लेते लेने के अंत का ठिकाना नहीं। अधिक-से-अधिक लेने की हवस में आदमी अपनी शांति खो बैठता है। अपने को थोड़े में संतुष्ट करो। He who grips much, holds little. अर्थात् बहुत की आकांक्षा करनेवाला थोड़ा ही प्राप्त करता है।
अपने जीवन को खाली (शांति से खाली) मत बनाओ। अभी जो सुख मिलता है, वह अल्प है। विशेष सुख के लिए दूसरी ओर देखो। संतों ने कहा कि संसार की दूसरी ओर तुम्हारा अंदर हैं।
(शांन्ति-सन्देश, जनवरी-अंक, सन् 1989 ईस्वी)
श्री सद्गुरु महाराज की जय


मंगलवार, 20 नवंबर 2018

बोध-कथाएँ - 3. स्वर्ग और नरक जानेवालों की पहचान (“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ” नामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)


॥ॐ श्रीसद्गुरवे नमः॥

बोध-कथाएँ - 3. स्वर्ग और नरक जानेवालों की पहचान

(“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँनामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)

किसी नगर में एक वेश्या रहती थी। उस नगर के एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर अपनी नौकरानी से वह बोली, “शहर में जाकर देख आओ कि उस मृत प्राणी को स्वर्ग हुआ या नरक?” एक साधु उसी होकर उस नगर में प्रवेश कर रहा था। वेश्या के मुख से स्वर्ग-नरक की चर्चा सुनकर वह स्तम्भित हो वहाँ खड़ा हो गया।
थोड़ी देर के बाद नौकरानी शहर से लौटकर आयी और बोली, “मालकिन्! उसको स्वर्ग हो गया। एक वेश्या की नौकरानी के मुख से स्वर्ग-नरक-संबंधी इस प्रकार की परीक्षित बातें सुनकर साधु के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
उसने वेश्या के पास जाकर पूछा, “ऐसी कौन-सी विद्या तुम्हारे पास है, जिसके सहारे तुम्हारी नौकरानी भी जान पाती है कि अमुक व्यक्ति को स्वर्ग हुआ या नरक?"
वेश्या बोली, “साधु बाबा! आप यह बात नहीं जानते हैं! जिनकी मृत्यु से बहुत लोग दुःखी हों, जिनकी लोग प्रशंसा करते हों और कहते हों कि वे बहुत अच्छे लोग थे, तो जानिये कि उनको स्वर्ग हुआ और जिसकी मृत्यु होने पर बहुत-से लोग उसकी निंदा करते हों अथवा कहते हों कि भले ही वह मर गया, बड़ा दुष्ट था, तो जानिये कि उसको नरक हुआ।
(शान्ति-सन्देश, मार्च-अंक, सन् 1966 ईस्वी)
श्री सद्गुरु महाराज की जय





मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बोध-कथाएँ - 2. हृदय की शद्धि कैसे होती है (“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ” नामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)


॥ॐ श्रीसद्गुरवे नमः॥

बोध-कथाएँ - 2. हृदय की शद्धि कैसे होती है

(“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँनामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)

दो भाई थे। बड़े भाई ज्ञानी, भक्त और सत्संगी थे। छोटा भाई संसारी और घर का कारबारी था। कारबार करते-करते छोटे भाई का मन एक बार ऊबा और बड़े भाई के पास जाकर उसने कहा -अगर आप आज्ञा दीजिए, तो मैं कुछ काल के लिए यात्रा करूँ, तीर्थों में जाकर स्नान करूँ और धामों में जाकर देव-मूर्तियों के दर्शन करूँ?” बड़े भाई ने कहा-बहुत अच्छा, जाओ और कुशलपूर्वक लौट आओ। मेरी इस समूची कोरी तुमड़ी को अपने साथ लेते जाओ। जिस-जिस तीर्थ में तुम स्नान करना, उस-उस तीर्थ में इस तुमड़ी को भी स्नान करा देना और जिस-जिस धाम में तुम दर्शन करना, उस-उस धाम में इसको भी दर्शन करा देना।
छोटा भाई उस तुमड़ी को लेकर चल पड़ा। कुछ दिनों के बाद तीर्थयात्रा करके तुमड़ी को लेते हुए घर लौटा। बड़े भाई को प्रणाम करके उस तुमड़ी को सामने रख दिया।
छोटे भाई को देखकर बड़ा भाई, बड़ा प्रसन्न हुआ तथा आशीर्वाद दिया। उस तुमड़ी को बड़े भाई ने विधि से काटा और उसके भीतर का गूदा निकाल दिया। उस तुमड़ी के भीतर जल रखने योग्य स्थान हो गया। उसमें जल भरकर बड़े भाई ने छोटे भाई से कहा - इस जल को जरा चखो।छोटे भाई ने वैसा ही किया। मुँह में उस जल को रखते ही छोटे भाई ने उस जल को कुल्ली से फेंक दिया और बड़े भाई से कहा - यह जल नीम-सा तीता है।
बड़े भाई ने कहा - तीर्थों में स्नान करके और देव-मंदिरों में देव-मूर्तियों के दर्शन करके भी इस तुमड़ी के भीतर को कड़वाई दूर नहीं हुई। इसी तरह उपर्युक्त कामों से किसी के भीतर की मैल दूर नहीं होती और हृदय की शुद्धि नहीं होती, यह तो सत्संग और भजन से ही होता है।"
(संतवाणी सटीक, पृष्ठ 30)
श्री सद्गुरु महाराज की जय






मंगलवार, 6 नवंबर 2018

बोध-कथाएँ - 1. साधना में धैर्य और प्रेम चाहिए || महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँ” नामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा


॥ॐ श्रीसद्गुरवे नमः॥

बोध-कथाएँ - 1. साधना में धैर्य और प्रेम चाहिए

(“महर्षि मेँहीँ की बोध-कथाएँनामक पुस्तक से, सम्पादक : श्रद्धेय छोटे लाल बाबा)
एक लघु कथा है। एक राजा के मन में विरक्ति हो गयी। वे एक इमली गाछ के नीचे बैठकर तप करने लगे। एक दूसरा आदमी था, जो अपने परिवार से झगड़ा करके घर से निकल भागा और राजा की नकल में एक अरण्ड पेड़ के नीचे बैठकर तप करने लगा। भगवान् की ओर से राजा के लिए उत्तम भोजन और उस अरण्ड गाछ के नीचे बैठनेवाले के लिए मडुए की रोटी भेजी जाती थी।
संयोग से एक दिन नारद मुनि उसी होकर जा रहे थे। राजा ने नारदजी से पूछा, “आप कहाँ जा रहे हैं?” नारदजी ने कहा, “मैं विष्णुलोक जा रहा हूँ।राजा ने कहा, “महाराज! जब आप विष्णु भगवान् के यहाँ जा रहे हैं, तो भगवान् से आप पूछेंगे कि मुझे इस इमली गाछ के नीचे कितने दिनों तक तप करने पर उनके दर्शन होंगे?" नारदजी ने कहा, “अच्छा, ठीक है। मैं पूछ लूँगा।
नारदजी आगे बढ़े, तो अरण्ड गाछ के नीचे बैठनेवाले ने भी उनसे कहा कि महाराज! केवल राजा के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी भगवान् से पूछेंगे कि मुझे इस अरण्ड गाछ के नीचे कितने दिनों तक तप करना होगा? नारदजी ने कहा कि बहुत अच्छा, तुम्हारे लिए भी मैं भगवान् से पूछ लूँगा।
नारदजी जब भगवान् विष्णु के पास पहुँचे, तो भगवान् विष्णु से उन्होंने पूछा कि भगवन्! एक राजा इमली गाछ के नीचे बैठकर तप कर रहे हैं और एक दूसरा आदमी अरण्ड गाछ के नीचे बैठकर तप कर रहा है। दोनों ने पूछा है कि उनलोगों को भगवान् के दर्शन के लिए कितने दिनों तक तप करना होगा?
भगवान् विष्णु ने कहा कि इमली वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक राजा को तप करने के बाद मेरे दर्शन होंगे और अरण्ड गाछ के नीचे जो बैठा है, अरण्ड वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक उसको भी तप करना होगा, तब मेरे दर्शन होंगे।
नारदजी जब भगवान् विष्णु के यहाँ से वापस लौटे, तो पहले अरण्ड वृक्षवाले से भेंट हुई। नारदजी ने उससे कहा कि इस अरण्ड वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक तुमको यहाँ तप करना होगा। ऐसा तुम्हारे लिए भगवान् विष्णु ने कहा है। वह आदमी जब अरण्ड गाछ के पत्तों को देखने लगा, तो बहुत-से पत्तों को देखकर घबड़ा गया और यह सोचकर चल दिया कि इतने वर्षों तक कौन तप करे! इससे तो घर का झगड़ा ही सही, घर ही में रहूँगा। वह अपने घर वापस हो गया।
जब नारदजी राजा के पास पहुँचे, तो राजा ने बड़ी आतुरता से उनसे पूछा कि महाराज! मेरे संबंध में भगवान् से जानकारी ली थी? नारदजी ने कहा कि हाँ, भगवान् विष्णु ने आपके लिए कहा कि इस इमली वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक आपको तप करना होगा, तब आपको भगवान् दर्शन देंगे।
यह सुनते ही राजा प्रेम में मग्न हो गये और नाचने लगे। राजा को खुशी थी कि भगवान् के कभी तो दर्शन होंगे! इतने में भगवान् विष्णु वहाँ पहुँच गये। नारदजी ने भगवान् से पूछा कि आपने तो हद कर दी। मुझसे तो आपने कहा था कि इमली वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों तक तप करने के बाद राजा को आपके दर्शन होंगे; लेकिन आप तो तुरंत ही आ गये।
भगवान् विष्णु ने कहा कि देखते हैं, राजा को कितना प्रेम है। इनके प्रेम के वशीभूत होकर ही मैं अभी तुरंत यहाँ चला आया। जिस समय आपको इन्होंने मुझसे पूछने के लिए कहा था, उस समय ऐसा प्रेम इनमें नहीं था।
हमलोगों को खुश होना चाहिए कि जैसे इमलीवाले का काम खत्म हुआ, उसी तरह हमलोगों का भी काम खत्म होगा। गुरु महाराज की दया से हमलोग भी जन्म-मरण के चक्र से जल्दी छूट जाएँगे।
(शान्ति-सन्देश, अप्रैल-अंक, सन् 1996 ईस्वी)
श्री सद्गुरु महाराज की जय








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