शनिवार, 29 सितंबर 2018

सन्तमत सिद्धान्त

सन्तमत सिद्धान्त

1. जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर सर्वाधार मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में, अगुण और सगुण पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शक्तियुक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम-रूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मण्डल एक महान यन्त्र की नाई परिचालित होता रहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्मपद व परम अध्यायत्म स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।

2. जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।

3. प्रकृति आदि-अन्त सहित है और सृजित है।

4. मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है।

5. मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार, प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदो से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है।

6. झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचों महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।

7. एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानभ्यास; इन पाँचों को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

परम संत बाबा देवी साहब जी

परम संत बाबा देवी साहब जी


परम संत बाबा देवी साहब का जन्म मार्च 1841 ई0 में एक प्रतिष्ठित कायस्थ कुल में हुआ था। इनके पिता श्रीमहेश्वरी लाल जी हाथरस तहसील (जिला अलीगढ़) के कानूनगोई में काम करते थे और संत तुलसी साहब के शिष्य थे।

श्रीमहेश्वरी लालजी के कई संताने शैशवास्था में ही कालकल्वित हो गईं। इसीलिए वे दुखी रहा करते थे। एक दिन संत तुलसी साहब इनके घर आए और आशीर्वाद देते हुए कहा कि चिन्ता न करो, इस वर्ष तेरे घर पवित्र आत्मा तेजस्वी बालक ने जन्म लिया है। पुरोहित ने जन्म कुण्डली बनाई और कहा - ’यह बालक बड़ा प्रतापी होेगा। हिन्दू ही नहीं, अनेक धर्मों के लोग इसका सम्मान और यशोगान करेंगें।’ बालक का नाम देवी प्रसाद’ रखा गया। इस बीच तुलसी साहब बाहर भ्रमण कर रहे थे।

तुलसी साहब हाथरस लौटे तो मुंशीजी बच्चे को उनसे आशीर्वाद दिलाने उनकी कुटिया पर आए। तुलसी साहब बच्चे के सिर पर हाथ रखकर प्रसन्नतापूर्वक आशीष देते हुए कहा - ’यह सोए हुए भारत वर्ष में जागृति पैदा करेगा।’ बाबा देवी साहब बचपन से ही सच्चे, सरल और निर्भीक थे। खेल-कूद की अपेक्षा ये आध्यात्मिक क्रिया-कलापों
में अधिक रूचि लेते थे। सत्संग सुनना और ध्यान करना इन्हें अच्छा लगता था। छः वर्ष की अवस्था में इनकी पढ़ाई की व्यवस्था की गई। ये अपना सबक मिनटों में निबटाकर विचार मग्न हो जाया करते थे। एक दिन अध्यापक ने पूछा- ‘तू खाली बैठकर क्या सोचा करते हो?’ इन्होने संकोच के साथ उत्तर दिया - सोचता हूँ यह संसार किसने उत्पन्न किया और क्यो? इसमें जीवन कहाँ से आता है और कहाँ चला जाता है?’ अध्यापक इनके प्रश्नों से विस्मित हो गए।

एक बार वे लोगों के साथ देवी स्थान गए। वहाँ बँधे हुए बकरे और नंगी तलवार को देखकर ये बेहोश हो गए। जब इन्हें होश आए तो किसी ने इनके कुटुम्बियों से कहा - ’बच्चे का हृदय कच्चा होता है इसे यहाँ नहीं लाना था।’ इस पर बाबा साहब ने उत्तर दिया - ‘क्या बड़े होकर लोगों का हृदय पत्थर जैसा कठोर हो जाता है? इन्होने और भी बहुत-सी बाते कही। लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि बकरे को जीवित ही चढ़ाकर छोड़ दिया।

एक बार इनके चाचा इन्हें साथ लेकर स्वामी दयानन्द जी के दर्शनार्थ गए। स्वामीजी ने बाबा साहब से पूछा- ‘तुम किसको मानते हो? इन्होने का-‘एक परमेश्वर को।’ स्वामीजी- ‘वह कैसा है और कहाँ रहता है?’ इन्होने उत्तर दिया- ‘वह सबसे बड़ा है और सबसे सूक्ष्म भी। वह सबके अन्दर रहता है।’ स्वामीजी के कुछ प्रश्नों के भी बाबा ने बड़े ही सटीक उत्तर दिए। स्वामीजी इनके उत्तर से अत्यधिक प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया।

जब इनकी आयु चैदह वर्ष की हुई तो इनकी माता का देहावसान हो गया। माता से बिछुड़ने के बाद इनका मन संसार से विरक्त होने लगा। पिता ने समझा-बुझाकर एक अंग्रेजी स्कूल में नामांकन कराया। इनकी स्कूल की शिक्षा समाप्त होते ही इनके पिता भी परलोक वासी हो गए। अब इन्होंने घर-बार त्यागकर वैरागी बननेका निश्चय कर लिया। इनके एक संबंध के भाई श्री पद्मदास जी राधास्वामी मत के सत्संगी थे। वे इन्हें राधास्वामी मत के द्वितीय आचार्य रायबहादुर शालग्रामजी के पास ले गए जो उस समय पोस्टमास्टर जनरल के पद पर थे। रायसाहब ने समझाया कि भिक्षा माँगकर साधु-जीवन बिताना कष्टकर है। मैं तुम्हें पोस्ट आॅफिस में नौकरी लगा देता हूँ और तुम यहीं सत्संग भजन करो। तीस रूपये महीने पर इनकी नौकरी लग गई। घरवालों के आग्रह पर भी इन्होने गृहस्थी नहीं बसाई। ये नौकरी के दायित्वों को संभालने के साथ-साथ अपने भोजन आदि की व्यवस्था करते और भगवत भजन में लीन रहते। वहाँ एक प्रेमी सज्जन साहुवंशीधर के यहाँ इनका निवास था। इन्होने अपनी तीस वर्षों की नौकरी से उपार्जित धन वंशीधर जी को दे दिया। वंशीधर जी ने उस धन को अपने व्यापार में लबाकर बाबा साहब को तीन रूपये महीने देने लगे। बाबा साहब ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और उन्हीं रूपयों से काम चलाते हुए सत्सग ध्यान मे मस्त रहने लगे। सामान्यता ये एक लम्बा काला कुत्र्ता पहनते थे।

जैसे-जैसे इनकी साधना परिपक्व होती गई इनका यश भी दूर-दूर फैलने लगा। इनके ज्ञान से प्रभावित होकर बुद्धिजीवी लोग इनकी सेवा में पहुँचने लगे। ये सत्संग में संतमत के अनेक विषयों पर प्रकाश डाला करते थे। यथा-सदाचार, कर्मफल, आवागमन, पिण्ड-ब्राह्माण्ड, ईश्वर-स्वरूप, अन्तज्र्योति, अन्तर्नाद, मोक्ष आदि।

26 फरवरी 1886 ई. को इन्होंने अपने दो सहयोगियों-मुंशी रघुवरदयाल और बलदेव कहार को साथ लेकर धर्म-प्रचार के लिए यात्रा आरंभ की। लखनऊ, बनारस, डुमराँव, बक्सर, बाँकीपुर, जमालपुर, मुंगेर, भागलपुर आदि स्थानों की यात्रा करके इन्होंने अध्यात्म-विषयक व्याख्यान दिए। ये अपने उपदेश में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार; इन पाँच पापों के तयाग के साथ परोपकार, स्वावलम्बी जीवन, सत्संग-ध्यान आदि विषयों पर जोर दिया करते थे। इन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए दो मार्ग आवश्यक बतलाए - दृष्टि-मार्ग और शब्द मार्ग।

1909 ई0 में भागलपुर के मायागंज में महर्षि मेँहीँ महाराज को इनके प्रथम शुभ दर्शन हुए। योग्य शिष्य पाकर बाबा साहब ने इनके अन्दर ज्ञान की सम्पूर्णता भर दी। आगे चलकर ये ही बाबा साहब के प्रधान शिष्य होने का गौरव प्राप्त करते हुए संतमत के प्रमुख स्तंभ बने।

बिहार और उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त बाबा साहब ने पटियाला, जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, जम्मू-कश्मीर, रावलपिण्डी, झेलम आदि स्थानों की यात्रा की। ये जहाँ भी जाते इनकी वाणी से लोग बहुत प्रभावित होते अनेक स्थानों पर लोगों के शारीरिक और मानसिक कष्टों को अपनी सिद्धि बल से दूर किया। जम्मू-कश्मीर के महाराज सर प्रताप सिंह बहादुको भी बाबा साहब का सत्संग और सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार इनका सत्संग प्रचार-कार्यक्रम लगभग 1916 ई0 तक अनवरत रूप से चलता रहा तत्पश्चात् इन्होंने मुरादाबाद से बाहर जाना छोड़ दिया। अब दूर-दूर से भक्तगण इनके निवास पर आकर इनके दर्शन और सदुपदेशों का लाभ लेते। 1918 ई0 से बाबा साहब प्रायः अन्तर्मुख रहते हुए प्रभु में लीन रहने लगे 15 जनवरी, 1918 ई0 से इनकी अवस्था सर्वथा भिन्न हो गई। इन्होने अन्न त्याग कर मात्र जल लेना शुरू किया और लोगों से वार्तालाप करना छोड़ दिया। अन्ततः 19 जनवरी 1919 ई0 रविवार के दिन संतमत के इन महान ध्वजवाहक ने सदा के लिए लोगों के लिए विदा ले लिया।

अंतकाल निकट जान भक्तों ने कहा हूजूर उपदेश किया जाय-
कहा - ‘‘दुनिया वहम है अभ्यास करो।’’
उपदेश-
1. मिथ्या भाषण, चोरी, धन-संबंधी लूट-खसोट आत्मा के अपावन रोग हैं।
2. संसार और उसके सम्पूर्ण पदार्थ नाशवान है, आवागमन होता है। कब्र और चिता में जाने के पूर्व मोक्ष प्राप्त करो।
3. जीव के उद्धार का मार्ग हर एक मनुष्य के अन्तर में मौजूद है। जब तक इस पर न चलेगा, धर्म और पंथ का असली फल मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है।
4. वैदिक धर्मी, मुसलमान, ईसाई कुछ बने रहो, परन्तु दुनिया में दुःख-सुख भोगते हुए अन्तर बिना अभ्यास किए एक दिन भी मत रहो।
5. साधु और संत वे कहलाते है जो दुनिया में सीधी और सलामत रवी की चाल को अख्तियार करते हैं और सुरत अर्थात् ख्याल से ध्यान करने का उपदेश करते हैं।

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

पदावली भजन Padawali Bhajan with youtube link

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सन्त सद्गुरू महषि मेँहीँ परमहंस जी महाराज फोटो सहित जीवनी galary with Biography



पूज्य गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज 





























































































































































































सन्त सद्गुरू महषि मेँहीँ परमहंस जी महाराज



सन्त की सुदीर्घ परम्परा: भारत की संस्कृति ऋषियों और सनतों की संस्कृति रही है। यहाँ समय-समय पर व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव, नारद, याज्ञवल्क्य, जनक, वशिष्ठ, दधीचि, बुद्ध, महावीर, शंकर रामानन्द, नानक, कबीर, सूर, तुलसी, विवेकानंद, रामतीर्थ आदि-जैसे सन्त-मनीषी अवतरित होते ही रहे हैं। इन्हीं ऋषियों और सन्तों की दीर्घकालीन अविच्छिन्न परम्परा की एक अद्भुत और गौरवमीय कड़ी के रूप में अवतरित हुए थे हमारे परम पूज्य आराध्यदेव सन्त सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज।

माता-पिता, जन्म और बाल्यवस्था: सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज का अवतरण विक्रम संवत् 1642 के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी-श्याम (मझुआ) नामक ग्राम में अपने नाना के यहाँ हुआ था। जन्म से ही इनके सिर में सात जटाएँ थीं, इन्हें प्रतिदिन कंघी से सुलझाने पर भी दूसरे दिन प्रातः काल वे संतों जटाएँ यथावत् मिल जाती थीं। लोगों ने समझा कि अवश्य ही किसी योगी-महात्मा का प्रादुर्भाव हुआ हैं। ज्योतिषी ने इनका जन्म-राशि का नाम रामानुग्रहलाल दास रखा। बाद में इनके पिता के चाचा श्री भरतलाल दासजी ने इनका नाम बदलकर ‘मेँहीँ लाल’ रख दिया। कालान्तर में इनके अन्तिम सद्गुरूदेव परम सन्त
बाबा देवी साहब ने भी इनके इस नाम की सार्थकता का सहर्ष समर्थन किया।

महर्षिजी का पितृ गृह पूर्णियाँ जिलान्तर्गत बनमखी थाने के सिकलीगढ़ धरहरा नामक ग्राम में अवस्थित है। मैथिली कर्ण कायस्थ कुलोत्पन्न इनके पिताश्री बबुजनलाल दास जी यद्यपि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, तथापि शौकसे वर्षों तक बनैली राज के एक कर्मचारी रहे। जब महर्षि को इनके पिता और इनकी बड़ी बहन झूलन दायजी ने इतने स्नेह और सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में पालित-पोषित किया कि इन्हें माता का अभाव कभी नहीं खटका।

शिक्षा और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - पाँच वर्ष की अवस्था में मुण्डन संस्कार होने के बाद अपने गाँव की ही पाठशाला में इनकी प्रारम्भिक शिक्षा शुरू हुई, जिसमें इन्होने कैथी लिपि के साथ-साथ देवनागरी लिपि भी सिखी। प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करके इन्होने 11 वर्ष की अवस्था में पूर्णिया जिला स्कूल में पुराने अष्टम वर्ग में अपना नाम लिखवाया। यहाँ उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़नें के साथ-साथ पूर्व आध्यात्मिक संस्कार से प्रेरित होकर रामचरितमानस, महाभारत, सुखसागर आदि धर्मग्रन्थों का भी अवलोकन करते और शिव को इष्ट मानकर उन्हें जल चढ़ाया करते। इसी अवधि सन् 1909 ई0 में इन्होने जोतरामराय (जिला पूर्णियाँ) के एक दरियापंथी साधु सन्त श्री रामानन्द जी से मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से किये जानेवाले त्राटक की दीक्षा ले ली और नियमित रूप से अभ्यास भी करने लगे। योग-साधना की और बढ़ती हुई अभिरूचि के कारण अब ये पाठ्य पुस्तकों की और से उदासीन होने लगे और मन-ही-मन साधु-सन्तों की संगति के अभिलाषी हो उठें।

प्रबल वैराग्य: 1904 ई0 में 3 जुलाई से आरम्भ हुई मैट्रिक की परीक्षा के अँग्रेजी प्रश्न-पत्र में श्ठनपसकमतश् नामक कविता की जिन प्रारम्भिक चार पंक्तियों उद्धत करके उनकी व्याख्या करने का निर्देश किया गया था, वे इस प्रकार थीः

For the structure that we raise
Time with material's field
Our today's and yeasterday's
Are the blocks with which we build.


इन चार पंक्तियों को उद्धत करके इनकी व्याख्या लिखते-लिखते इनमें वैराग्य की भावन इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अन्त में रामचरितमानस की यह चैपाई ‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’ लिखकर परीक्षा-भवन का परित्यागकर दिया और यहीं इनकी स्कूली शिक्षा का सदा के लिए अन्त हो गया। इनके वैराग्य-उद्दीपन का आधार बना अँग्रेजी का यह दूसरा वाक्य श्।सस उमद उनेज कपमण्श् जिसे इन्होने बचपन की प्रारंभिक पाठ्य पुस्तक में पढ़ा था और जो इनके मस्तिष्क में बिजली की तरह कौंधता रहता था।

सच्चे गुरू की तलाशः इन्होने धर्मग्रन्थों में पढ़ा था कि मानव-जीवन में ही है। इसलिए इन्होने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर-भक्ति में अपना समस्त जीवन बिता देने का संकल्प लिया। आरम्भ में इन्होने अपने गुरू स्वामी श्री रामानन्दजी की कुटिया पर रहकर निष्ठापूर्वक उनकी सेवा की, किन्तु जिज्ञासाएँ शान्त नहीं हुई। इसलिए एक सच्चे और पूर्ण गुरू की खोज में ये निकल पड़े। इसी क्रम में इन्होने भारत के अनेक तीर्थों की यात्राएं की, परन्तु कहीं भी इनके चित्त को समाधान नहीं मिला। अन्त में इन्हें जब जोतरामराय-निवासी बाबू श्रीधीरजलाल जी गुप्त द्वारा मुरादाबाद - निवासी परम संत बाबा देवी साहब और उनकी सन्तमत-साधना-सम्बन्धी जानकारी मिली, जब इनके हृदय में सच्चे गुरू के मिल जाने की आशा बँध गई। बड़ी आतुरता से इन्होने सन् 1909 ई0 में बाबा देवी साहब द्वारा निर्दिष्ट मार्ग, ‘दृष्टियोग’ की विधि भागलपुर नगर में मायागंज-निवासी बाबू श्री राजेन्द्रनाथ सिंह जी से प्राप्त की, तो इन्हे बड़ा सहारा मिला। उसी वर्ष विजयादशमी के शुभ अवसर पर श्री राजेन्द्रनाथ सिंह जी ने भागलपुर में ही बाबा देवी साहब से इनकी भेंट करवा दी और इनका हाथ सद्गुरू देव के हाथों में दे दिया और बोले की मैं आपका गुरू नहीं, बाबा साहबही आपके गुरू हैं। मैं तो उनका आदेशपालक हूँ। बाबा देवी साहब जैसे महान् सन्त सद्गुरू को पाकर ये निहाल हो गये। उनके दर्शन और प्रवचन से इन्हें बड़ी शान्ति मिली और तृप्ति का बोध हुआ।

स्वावलम्बी जीवन: कमाने की झंझट से मुक्त रहकर एकमात्र मधुकरी वृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले इन युवा संन्यासी को बाबा देवी साहब ने परिश्रमपूर्वक अपनी कमाई के जीवन-यापन का आदेश दिया और कहा कि यदि सौ वर्ष तक जीवित रहोगे तो क्या खाओगे? एक सच्चा शिष्य गुरू की आज्ञा की अवहेलना कैसे करता? लेकिन महर्षि जी का कथन है कि हमारे देश में बहुत तरह के सन्त हुए है, उनमें से बहुतों ने भिक्षा माँगी, बहुतों ने नहीं भी माँगी, किन्तु थे सभी सन्त। गौ का बच्चा अपने तईं दूध पीता है। उसी प्रकार पेट का धन्धा करना सभी जानते है, लेकिन स्वावलम्बी होने से निश्चिन्तता रहती है। मुख्य बात भजन है। जो भजन-ध्यान नहीं करता और केवल पेट के धन्धों में ही लगा रहता है, वह बैल की तरह जीवनयापन करता है। वह झूठी प्रतिष्ठा और मान-बड़ाई तथा माया के जाल में पड़कर जीवन बर्बाद करता है। बाबा देवी साहब का कथन है कि जवानी मंे अर्थात् 40 वर्ष की अवस्था में इतना ईमानदारी से धन संग्रह कर लो कि बुढ़ापे में कमाने की आवश्यकता न पड़े। भजन करने हेतु घर का परित्यागकर एकान्त साधना करो, जिससे जीवन का उद्देश्य पूरा हो। भगवान भिक्षा-वृत्ति को अपनी वंश-परम्परा बताते है (देखे पृष्ठ 121, राजा शुद्धोदन की कथा, धम्ममपद)। संन्यासी लोग जितना लेते है, उससे कई गुणा अधिक देश और समाज का उपकार करते हैं। (पूर्णियाँ) और सिकलीगढ़ धरहरा में क्रमशः अध्यापन और कृषिकार्य किया।

गंभीर साधना और साक्षात्कार - सन् 1912 ई0 में बाबा देवी साहब ने स्वेच्छा से इन्हें शब्दयोग की विधि बतलाते हुए कहा कि अभी तुम दस वर्ष तक केवल दृष्टियोग का ही अभ्यास करते रहना। दृष्टियोग में पूर्ण हो जाने पर ही शब्दयोग का अभ्यास करना। शब्दयोग की क्रिया अभी मैंने तुम्हे इसलिए बतला दी की यह तुम्हारी जानकारी में रहे। सन् 1918 ई0 में सिकलिगढ़-धरहरा में इन्होने जमीन के नीचे एक ध्यानकूप बनाया और उसमें लगातार तीन महीने तक एकान्त में रहकर तपस्यापूर्ण साधना की, जिसमें इनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया। सन् 1919 ई0 की 19 जनवरी को बाबा देवी साहब के परिनिवृत हो जाने के बाद इनके मन में इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त कर लेने का प्रबल संवेग सतत् उठता रहा। सन् 1933-34 ई0 में इन्होने पूर्ण तत्परता के साथ 18 महीने तक भागलपुर के कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की अत्यन्त गंभीर साधना की, फलस्वरूप ये आत्म-साक्षात्कार में सफल हो गये।

सन्तमत का प्रचार-प्रसार: अब इनका ध्यान सन्तमत-सत्संग के प्रचार-प्रसार की ओर विशेष रूप से गया। इन्होने सत्संग की एक विशेष नियमावली तैयार की। फिर क्या था? अखिल भारतीय स्तर पर तीन दिनों के लिए और जिला स्तर पर दो दिनों के लिए निर्धारित तिथियों पर जगह-जगह वार्षिक अधिवेशन होने लगे। इनके अतिरिक्त प्रखण्ड स्तर पर एक दिन के लिए मासिक सत्संग का आयोजन होने लगा। कहीं-कहीं यथावसर सत्संग के साथ-साथ सामूहिक मास - ध्यान-साधना भी होने लगी। पुस्तकों के प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम समझकर इन्होने लेखन की और ध्यान दिया। ये अपनी साहित्यिक रचनाओं और प्रवचनों द्वारा यह सिद्ध करने लगे की सभी सन्तों के विचार मूलतः एक है और सन्तमत वेद, उपनिषद, गीता आदि ग्रन्थों के विचारों पर ही आधारित है। इन्होने सन्तमत के सत्स्वरूप को उजागर किया। लोग इनके विचारों से अत्यन्त प्रभावित होते गये। आज भारत के विभिन्न राज्यों तथा विदेशों (नेपाल, जापान, रूस, अमेरिका, स्वीडेन आदि) में फैले हुए इनके शिष्यों की संख्या अगणित है।

सर्वविदित है कि धर्म-प्रचारकों को अपने जीवन में अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। सद्गुरू महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को भी सन्तमत-सत्संग के प्रचार-प्रसार में अनेक चुनौतियों-कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इन पर मनगढ़न्त दोषारोपण हुए, अनेक अफवाहों की आँधियाँ चलीं, मीरा की तरह छल से विष दिया गया, रात में फूस की कुटिया मंे अग्नि प्रज्वलित कर इन्हें जिन्दा जला देने की कोशिश की गई, तलवार से सिर कलम कर देने के लिए क्रुर हाथ उठाया गया और इन्हें विचलित करने के लिए आश्रम में डाका डालाया गया; परन्तु धरती की क्षमाशीलता, आकाश की अनन्तहृदयता, सागर की गम्भीरता, हिमालय की अटलता को धारण किये महर्षि जी प्रचार-मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। दिनों-दिन इनका व्यक्तित्व आग में तपाये गये सोने की तरह निखरता ही गया। इनके पवित्र यश की धवल चाँदनी फैलती ही गई। अन्ततः प्रबल विद्वेषी भी एक दिन इन्हीं की शरण में आये और सबों ने इनकी गुरूता स्वीकार की। इस प्रकार सारी आपदाओं को सहन करनते हुए इन्होंने सन्तमत का प्रचार-प्रसार किया।

महर्षिजी की साहित्यिक रचनाएँ एवं आश्रम व शिष्यगण: अखिल भारतीय सन्तमत-सत्संग की ओर से प्रकाशित होने वाली हिन्दी मासिक पत्रिका ‘शान्ति-सन्देश लगभग 50 वर्ष से जन-जन में सन्तमत की सूक्ष्म विवेचना कर रही है, जिसके द्वारा ऋषियों, मुनियो, साधु-सन्तों, महात्माओं और विद्वानों के लोक हितकारी वचनों को जन-सुलभ कराने का महत्कार्य सम्पन्न हो रहा है। इसके अतिरिक्त महर्षि मेँहीँ विरचित व संगृहीत 14 सारगर्भित पुस्तकों का प्रकाशन किया गया है। उनके नाम हैंः- 1. सत्संग-योग (चारों भाग), 2. वेद-दर्शनयोग, 3. विनय-पत्रिका-सार सटीक, 4. रामचरितमानस-सार सटीक, 5. श्रीगीता-योग-प्रकाश, 6.महर्षि मेँहीँ - पदावली, 7. सन्तवाणी सटीक, 8. भावार्थ-सहित घटरामायण पदावली, 9. सत्संग-सुधा (प्रथम भाग), 10. सत्संग-सुधा (द्वितीय भाग) 11. महर्षि मेँहीँ-वचनामृत (प्रथम भाग), 12. मोक्ष-दर्शन, 13. ज्ञानयोगयुक्त ईश्वर-भक्ति, 14. ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति, 15. महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधासागर। इन समस्त रचनाओं का गम्भीरता से अध्ययन करने पर अध्यात्म-ज्ञान की सही जानकारी प्राप्त हो जाती है।

महर्षि मेँहीँ कभी-कभी अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि ‘‘सन्तों का विचार मेरा प्राणधार है। मैं इस विचार में इतना दृढ़ हूँ की मुझे कोई डुला नहीं सकता। मेरी रचित पुस्तकें जो पढ़ेंगे, वे भी दृढ़ होंगे, ऐसा मेरा विचार है।’’ सम्पूर्ण भारत और विदेश मिलाकर आपके लाखों शिष्य होंगें, जो ईश्वर-भक्ति का भेद लेकर साधना कर रहे हैं। देश-भर में आपके द्वारा और आपके नाम पर संस्थापित लगभग 500 आश्रम होंगें। संन्यासी, वैरागी शिष्य भी हजारों की संख्या में होंगें, जिनमें आचार्यों की संख्या 100 होगी। इनमें महर्षि सन्तसेवी परमहंस जी महाराज प्रधान शिष्य हैं। जिनको गुरूदेव प्रायः अपना मस्तिष्क कहा करते थे। संत महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 8 जून 1986 ई0 रविवार को जीवन के 101 वर्ष पूरे करके इस संसार से महाप्रयाण कर गये। गुरूदेव हमारी आंखों से ओझल हुए, किन्तु हमंे आश्वस्त कर गए कि ’’मैं मोक्ष नहीं चाहता हूँ, तुम लोगों के उद्धार के लिए पुनः आऊँगा।’’

सन्त सद्गुरू महषि मेँहीँ परमहंस जी महाराज फोटो सहित जीवनी galary with Biography

पूज्य गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज  ...

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