ईश-स्तुति (प्रातः कालीन)
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में।
निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में गति भाँति के हू पार में।।2।।
सूरत निरत के पार में सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में सारे प्रप´चन्ह पार में।।3।।
सापेक्षता के पार में त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्म काल के पार में सारे ज्जालन्ह पार में।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति आधेयता-गुण पार में।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार मैं-तू पार मे।।5।।
पुनि ओऊम् सोहम् पार में अरू सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में।।7।।
सत्शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में।
सद्गुरु करूण कर तर ठहर धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में।।8।।
(५८ )
प्रथमहिं धारो गुरु को ध्यान |
हो स्तुति निर्मल हो बिंदु ज्ञान || १ ||
दैउ नैन बिच सन्मुख देख |
इक बिन्दु मिलै दृष्टि दैउ रेख ||२||
सुखमन झलकै तिल तारा |
निरख सुरत दशमी द्वारा || ३||
जोति मण्डल में अचरज जोत |
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत || ४||
अनहद में धुन सत लौ लाय |
भव जल तरिबो यही उपाय || ५||
मेँहीँ युक्ति सरल साँची |
हलै जो गुरु सेवा राँची || ६||
(६७)
नुकते सफेद सन्मुख, झलके झलाझली ।।
शहर में नजर स्थिर कर, तन मन की चंचली ॥१॥
संतों ने कही राह यही, शांति की असली ।
शांति को जो चाहता, तज और जो नकली ॥२॥
यह जानता कोई राजदाँ, गुरु की शरण जो ली।
इनके सिवा न आन जो, मद-मान चलन ली ॥३॥
अति दीन होके जिसने, सत्संग सुमति ली।
अपने को सोई मेँ हीँ ', गुरु शरण में कर ली ॥४॥
(१२३)
॥दोहा॥
समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम ॥१॥
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत-संतान ॥२॥
‘में ही में ही भेद यह, सन्तमत कर गई।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ ॥३॥
भावार्थ-बीता हुआ समय लौटकर फिर नहीं आता, इसलिए शीघ्र ही अपना ईश्वर-भक्तिरूपी काम आरंभ कर दो । जो समय बीत गया, उसकी तो बात ही छोड़ दो; अब जो समय बचा हुआ है, उसमें भी तो गुरुमंत्र का जप करो अथवा आदिगुरु परमात्मा के असली नाम ध्वन्यात्मक सार शब्द को पकड़ने की कोशिश करो ॥१॥
सब कोई ध्यान देकर सुनो कि संतों के विचारों को अपनाये बिना किसी को भी परम मोक्ष नहीं हो सकता। इसलिए यदि अपना परम कल्याण चाहते हो, तो संतों के विचारों को अपनाने वाले बनो ॥२॥
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कहते हैं कि संतों का छिपा हुआ गंभीर ज्ञान पद्यों में गा-गाकर सबको सुना दिया; अब मैं चुप्पी साधकर रहता हूँ; तात्पर्य यह कि अब मैं पद्य-रचना के द्वारा कुछ कहना बंद करता हूँ ॥३॥
(१३६)
गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करे ।।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करे ॥१॥
जग नाश का विश्वास हो, फिर आस क्या करे ।
दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रास क्या करे ॥२॥
वैराग-युद अभ्यास हो, निराश क्या करे ।
सत्संगी-गढ़ में वास हो, भव-पाश क्या करे ॥३॥
त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे ।
सत बरत में दृढ़ आप हो, कोई शाप क्या करे ॥४॥
पूरे गुरू का संग हो, अनंग क्या करे।
“मेँहीँ जो अनुभव ज्ञान हो, अनुमान क्या करे ॥५॥
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में।
निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में गति भाँति के हू पार में।।2।।
सूरत निरत के पार में सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में सारे प्रप´चन्ह पार में।।3।।
सापेक्षता के पार में त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्म काल के पार में सारे ज्जालन्ह पार में।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति आधेयता-गुण पार में।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार मैं-तू पार मे।।5।।
पुनि ओऊम् सोहम् पार में अरू सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में।।7।।
सत्शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में।
सद्गुरु करूण कर तर ठहर धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में।।8।।
(५८ )
प्रथमहिं धारो गुरु को ध्यान |
हो स्तुति निर्मल हो बिंदु ज्ञान || १ ||
दैउ नैन बिच सन्मुख देख |
इक बिन्दु मिलै दृष्टि दैउ रेख ||२||
सुखमन झलकै तिल तारा |
निरख सुरत दशमी द्वारा || ३||
जोति मण्डल में अचरज जोत |
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत || ४||
अनहद में धुन सत लौ लाय |
भव जल तरिबो यही उपाय || ५||
मेँहीँ युक्ति सरल साँची |
हलै जो गुरु सेवा राँची || ६||
(६७)
नुकते सफेद सन्मुख, झलके झलाझली ।।
शहर में नजर स्थिर कर, तन मन की चंचली ॥१॥
संतों ने कही राह यही, शांति की असली ।
शांति को जो चाहता, तज और जो नकली ॥२॥
यह जानता कोई राजदाँ, गुरु की शरण जो ली।
इनके सिवा न आन जो, मद-मान चलन ली ॥३॥
अति दीन होके जिसने, सत्संग सुमति ली।
अपने को सोई मेँ हीँ ', गुरु शरण में कर ली ॥४॥
(१२३)
॥दोहा॥
समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम ॥१॥
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत-संतान ॥२॥
‘में ही में ही भेद यह, सन्तमत कर गई।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ ॥३॥
सब कोई ध्यान देकर सुनो कि संतों के विचारों को अपनाये बिना किसी को भी परम मोक्ष नहीं हो सकता। इसलिए यदि अपना परम कल्याण चाहते हो, तो संतों के विचारों को अपनाने वाले बनो ॥२॥
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कहते हैं कि संतों का छिपा हुआ गंभीर ज्ञान पद्यों में गा-गाकर सबको सुना दिया; अब मैं चुप्पी साधकर रहता हूँ; तात्पर्य यह कि अब मैं पद्य-रचना के द्वारा कुछ कहना बंद करता हूँ ॥३॥
(१३६)
गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करे ।।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करे ॥१॥
जग नाश का विश्वास हो, फिर आस क्या करे ।
दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रास क्या करे ॥२॥
वैराग-युद अभ्यास हो, निराश क्या करे ।
सत्संगी-गढ़ में वास हो, भव-पाश क्या करे ॥३॥
त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे ।
सत बरत में दृढ़ आप हो, कोई शाप क्या करे ॥४॥
पूरे गुरू का संग हो, अनंग क्या करे।
“मेँहीँ जो अनुभव ज्ञान हो, अनुमान क्या करे ॥५॥
जय गुरु महाराज बहुत अच्छा लिखे हैं।
जवाब देंहटाएंश्री सद्गुरु की चरणों में श्रधापूर्ण कोटि कोटि सत नमन।
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