शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

                      



  भजन नंबर 105

सतगुरु चरण टहल नित करिये नर तन के फल एहि है। युग-युग जग में सोवत बीते सतगुरु दिहल जगाय हे ॥ १ ॥ आँधरि आँखि सुझत रहे नाहीं थे पड़े अन्ध अचेत हे । करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे ॥२॥ भा परकाश मिटल अँधियारी सुक्ख भएल बहुतेर हे । गुरु किरपा की कीमत नाहीं मिटल चौरासी फेर हे ॥३॥ धन धन धन्य बाबा देवी साहब सतगुरु बन्दी छोर हे । तुम सम भेदि न नाहिं दयालू 'मेँहीँ' कहत कर जोरि हे ॥४॥




 यह भजन महर्षि मेंही द्वारा रचित पदावली से लिया गया है 

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बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

पाप या पुण्य दोनों प्रकार के कर्मों का परिणाम होता है।

पराभवस्तावदबोधजातो
यावत्र जिज्ञासत आत्मतत्त्वम्।

यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै
कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः

"जब तक कोई जीवन के आध्यात्मिक मूल्यों के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, वह अज्ञानता से उत्पन्न हुए दुखों का सामना करता ही रहेगा। पाप या पुण्य दोनों प्रकार के कर्मों का परिणाम होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार के कर्म में लगा है, उसका मन फलप्राप्ति की इच्छा से रंग जाता है। जब तक मन अशुद्ध है, चेतना अस्पष्ट है और जब तक व्यक्ति फल प्राप्ति में रमा है, उसे भौतिक शरीर स्वीकार करना होगा।"
              (श्रीमद् भागवतम्)

यह स्वभाविक है, जो कुछ भी आप करते हैं उसमें आपका मन रम जाता है। उसे कर्मात्मक कहा जाता है। इसलिए हमारा मन सदैव श्रीकृष्ण में लगा रहना चाहिए। तब हम शरीर बन्धन से मुक्त हो पायेंगे। दुर्भाग्यवश इसके विषय में कोई भी शिक्षा नहीं दे रहा है कि किस प्रकार भौतिक शरीर हमारे जीवन की प्रगति में बड़ी बाधा है।

*बन्धन की अवस्था में भौतिक प्रगति के लिए आप जो कुछ भी करते हैं वह प्रगति नहीं है। वह पराजय है। लोग दिन-रात इतने व्यस्त हैं। वे भौतिक प्रगति कर रहे हैं किन्तु यह प्रगति नहीं है। यह अधोगति है। किन्तु उन्हें इसकी जानकारी नहीं है। क्यों? *अबोध-जात* अज्ञानता में जन्म लेने के कारण।

यावन्न जिज्ञासत का अर्थ है, *"जब तक कोई भगवान और आत्मा के विषय में जिज्ञासा नहीं करता।"* आजकल ऐसी जिज्ञासा कहाँ की जाती है? लोग इसलिए जिज्ञासा नहीं करते क्योंकि उनके पास इसके विषय में जानकारी नहीं है। बड़े-बड़े प्रोफेसर भी सोचते हैं कि यह शरीर हमें अपने आप ही बिना किसी कारण के मिल गया और जैसे ही यह शरीर नष्ट होगा सबकुछ नष्ट हो जाएगा। इसका अर्थ है कि जे आत्मतत्वम् के विषय में नहीं जानते।

आज सुबह हम कुष्ट रोग के इलाज के विषय में चर्चा कर रहे थे। लोग नहीं जानते कि कुष्ठ रोग क्यों है। क्यों एक व्यक्ति कुष्ट रोग से पीड़ित है और दूसरा नहीं? क्या इसके पीछे कोई व्यवस्था नहीं है? कौन यह सब व्यवस्था कर रहा है?

   लोग इन सब विषयों के बारे में जिज्ञासा नहीं करते। वे पेड़ के समान नासमझ हैं। एक पेड़ जिज्ञासा नहीं कर सकता, "आप मुझे क्यों काट रहे हो?" आधुनिक मानव सभ्यता ऐसी ही है। इसलिए जो भी योजनाएँ लोग बनाते हैं ये विफल हो जाती है, कुछ समय बाद बेकार हो जाती है। पराभव - क्योंकि उन्हें ये ही पता नहीं है कि कौन सी योजनाएं बनाई जायें। बच्चों के समान वे सोच रहे हैं, "यदि मैं ऐसे खेलूंगा, यह बहुत ही अच्छा होगा।" इसलिए वे एक प्रकार के खेल में लगते हैं और फिर उसको दूसरे खेल में परिवर्तित कर देते हैं, क्योंकि उन्हें ये ही पता नहीं है कि किस प्रकार की योजनाएं बनाई जाएँ।
                   -- श्रील प्रभुपाद
            जय गुरु!🙏🙏🙏

सोमवार, 3 अक्टूबर 2022

इस सत्संग की आवश्यकता पर चर्चा करते हुए परमाराध्य गुरु महाराज कहते हैं

इस सत्संग की आवश्यकता पर चर्चा करते हुए परमाराध्य गुरु महाराज कहते हैं -

   मोक्ष का अर्थ है-बन्धन से छूट जाना। हम सब लोग बन्धन में बँधे हुए कैद हैं। शरीर में कैद हैं और जड़-चेतन की गिरह में बँधे हुए हैं। इसलिए सब लोग दुःख उठाते हैं। यह दुःख क्यों होता है? शरीर रहने पर ही दुःख होते रहते हैं, काम-क्रोध उत्पन्न होते रहते हैं। इसका कारण शरीर है। शरीर और संसार से छूटने से ही दुःख छूटेगा।*
     *ज्ञान का अर्थ है-जानना । योग का अर्थ है-मिलना। ज्ञान से जानने में आएगा कि किससे मिलना है। योग जानने से उसकी क्रिया करके उससे मिलेंगे। ईश्वर से मिलने के लिए जो क्रिया है, वह योग है। जप ध्यान सरल योग का अभ्यास है। सत्संग करना ज्ञान का अभ्यास करना है। शरीर और आत्मा को जानना ज्ञान है। लिखा-पढ़ा आदमी पुस्तक पढ़ता है, तो इससे उसको ज्ञान होता है; किंतु किसी विशेषज्ञ के पास जाकर सुनने से विशेष ज्ञान होता है। अक्षर और मात्रा को पढ़ने से पुस्तक पढ़ लेते हैं; किंतु उसका अर्थ ठीक-ठीक नहीं समझ सकते। ठीक-ठीक समझने-पढ़ने के लिए ही लोग कॉलेज और विद्यालयों में जाते हैं। इसीलिए पढ़े-लिखे लोगों को चाहिए कि जहाँ कहीं कोई विशेषज्ञ हों, उनके पास जाकर सुनें और सीखें। यह जानकर ज्ञान और योग; दोनों का अभ्यास अत्यन्त आवश्यक है। बहुतों का ख्याल है कि थोड़ा जप-ध्यान करते हैं, इसी से मरने पर मुक्ति हो जाएगी; किंतु उपनिषत्कार ने बताया कि “मरने पर जो मुक्ति होती है, वह मुक्ति नहीं है। जब तुम जीवन में मुक्ति प्राप्त करो और तुम्हें परमात्म स्वरूप की प्रत्यक्षता हो, तब तुम मरने पर मुक्त ही हो। 
     -- महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज

सन्त सद्गुरू महषि मेँहीँ परमहंस जी महाराज फोटो सहित जीवनी galary with Biography

पूज्य गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज  ...

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