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शब्दार्थ-
नोकते=नुक्ता, नुक्तः (अरबी), विन्दु, चिह्न । सफेद (फारसी सुफैद)=श्वेत, उजला । झलाझली=झलाझल, चमकता हुआ, प्रकाशमान । शहरग (फारसी शाहरग)=सबसे बड़ी रग, सबसे बड़ी नाड़ी, सुषुम्ना नाड़ी; यहाँ अर्थ है-सुखमन, सुषुम्न-विन्दु, दशम द्वार जहाँ सुषुम्ना नाड़ी सिमटकर एकविन्दुता प्राप्त करती है । (शाह=बादशाह, राजा, सर्वश्रेष्ठ) नजर (अरबी)=दृष्टि । राह (फारसी)=मार्ग, युक्ति, उपाय । असली (अरबी अस्ल)=असल, सच्चा । और=अन्य, दूसरा । नकली (अरबी)=बनावटी, झूठा, अस्वाभाविक, असार, खोटा । शान्ति=मन की स्थिरता । आन=अन्य, दूसरा । मद=घमंड । मान=आदर पाने की भावना । सोई=वही । राज (फाú)=भेद, रहस्य, मर्म, युक्ति । दाँ (फारसी प्रत्यय)=जाननेवाला । सिवा (अरबी- फारसी)=अतिरिक्त, अलावा, छोड़कर । दीन=नम्र, अहंकार-रहित । सुमति=सुबुद्धि, सात्त्विकी बुद्धि, अच्छा विचार, अच्छा ज्ञान ।
दोनों आँखों के मध्य और नाक के आगे आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में श्वेत विन्दु चमकता हुआ दिखाई पड़ता है । शहरग कहलानेवाले आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु के उस श्वेत विन्दु पर अपनी सिमटी हुई दृष्टिधार को स्थिर करके मन की चंचलता मिटा डालो ।।1।।
सन्तों ने मन की स्थिरता प्राप्त करने की सच्ची युक्ति आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में सिमटी हुई दृष्टिधार को स्थिर करना (दृष्टियोग करना अर्थात् ध्यानयोग करना) ही बतलाया है । जो मन की वास्तविक स्थिरता प्राप्त करना चाहे, वह दृष्टियोग (ध्यानयोग) को अपनाकर दूसरी अस्वाभाविक युक्ति-हठयोग को छोड़ दे ।।2।।
यह सच्ची युक्ति वही कोई जान पाता है, जो युक्ति जाननेवाले किसी गुरु की शरण ग्रहण करता है; उसके अतिरिक्त दूसरा वह कोई नहीं, जो अहंकार और आदर-प्रतिष्ठा पाने का मार्ग अपनाये हुए है ।।3।।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि जिसने अत्यन्त नम्र होकर (अत्यन्त अहंकार-रहित होकर) सत्संग करने की सुबुद्धि अपना ली है अथवा सत्संग और सुबुद्धि (अच्छे विचार) को अपना लिया है, वस्तुतः उसी ने अपने को गुरु-शरण में कर लिया है ।।4।।
टिप्पणी-
1- हठयोग में पूरक, कुंभक और रेचक क्रिया के द्वारा साँस को नियंत्रित करके मन को वशीभूत करने का ख्याल रखा जाता है; परन्तु इसमें मन पूर्णतः वशीभूत नहीं हो पाता और इस तरह श्वास-प्रश्वास का निरोध करना स्वाभाविक भी नहीं है । मन का पूर्ण वशीकरण ध्यानयोग (राजयोग) के ही द्वारा हो पाता है । ध्यानयोग में इच्छा का क्रमशः त्याग करने का अभ्यास करने के साथ-साथ मन को एक तत्त्व पर जमाने का अभ्यास किया जाता है । इसमें साँस अपने-आप बन्द हो जाती है और मन भी पूर्ण रूप से वशीभूत हो जाता है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि मनोनिरोध के लिए हठयोग की क्रियाओं के द्वारा साँस का निरोध न करके ध्यानयोग के द्वारा दृष्टि को स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए; क्योंकि मन पर साँस की अपेक्षा दृष्टि का अधिक प्रभाव पड़ता है । वे इस बात को समझाते हुए कहते हैं कि जाग्रत् और स्वप्न में दृष्टि और साँस के साथ-साथ मन भी चंचल रहता है; परन्तु सुषुप्ति अवस्था में साँस के चंचल रहने पर भी दृष्टि के स्थिर रहने पर मन भी स्थिर रहता है । इसलिए दृष्टि को स्थिर कर लेने पर साँस के चलते रहने पर भी मन स्थिर हो जाएगा ।
2- विषयों में लगे रहने पर ही मन चंचल रहता है । दृष्टियोग की पूर्णता होने पर मन अन्तर्मुख हो जाता है और बाह्य विषयों से उसका लगाव छूट जाता है, इस कारण उसकी चंचलता दूर हो जाती है; परन्तु उसकी विषय-सुख की चाहना तो नाद-ध्यान की पूर्णता होने पर ही छूटती है ।
3- अहंकारी किसी से कुछ सीखने का पात्र नहीं बन पाता ।
4- अहंकार और मान-प्रतिष्ठा पाने का मार्ग पकड़ने पर मन अन्तर्मुख नहीं हो पाता-बहिर्मुख ही रहता है । 5- जो अत्यन्त अहंकार-रहित है और सत्संग का अवलंब लिये हुए है, वही गुरु की शरण में है । 6- सूफी महात्मा दशम द्वार को ‘शहरग’ कहा करते हैं । 7- इस 67वें पद्य में उपमान छन्द के चरण हैं ।
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