शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान Pratamhi dharo guru ko dhyan Santmat Padawali Bhajan no 58



(58)
प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान ।
हो स्त्रुति निर्मल हो बिन्दु ज्ञान ।।1।।
दोउ नैना बिच सन्मुख देख ।
इक बिन्दु मिलै दृि" दोउ रेख ।।2।।
सुखमन झलकै तिल तारा ।
निरख  सुरत दशमी  द्वारा ।।3।।
जोति मण्डल में अचरज जोत ।
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत ।।4।।
अनहद में धुन सत लौ लाय ।
भव जल तरिबो यही उपाय ।।5।।
‘मेँहीँ’  युक्ति  सरल  साँची ।
लहै  जो  गुरु-सेवा  राँची ।।6।।


शब्दार्थ-प्रथमहि=प्रथम ही, पहले ही, प्रारंभ में ही । धारो=धारण करो, धरो, करो, जमाओ, स्थिर करो, स्थापित करो । दृष्टि रेख=रेखा के समान पतली दृष्टिधार । सुखमन= सुषुम्ना, सुषुम्नविन्दु, दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । झलकै=चमकता है, दिखाई पड़ता है । लहै=लहता है, प्राप्त करता है । तिल=तिल से भी बहुत सूक्ष्म ज्योतिर्मय विन्दु । दशमी द्वारा=दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । अनहद शब्द= जड़ात्मक मंडलों में उनके कंपनों से विविध प्रकार की होनेवाली ध्वनियाँ । धुन सत=सद्ध्वनि, सारशब्द । लौ=ध्यान । भवजल=भव-जलनिधि, संसार-समुद्र । साँची=सच्ची । राँची=रंजित रहनेवाला, डूबा हुआ रहनेवाला, रचा-पचा रहनेवाला, संलग्न, अनुरक्त, लीन, तत्पर, मग्न । (राँचना=रँगना, अनुरक्त होना, प्रेम करना; जैसे-तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ।। -मानस, बालकाण्ड ।

भावार्थ-पहले गुरु-नाम का मानस जप करके गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करो । इससे सुरत शुद्ध हो जाएगी और फिर दृष्टियोग करने पर ज्योतिर्मय विन्दु का प्रत्यक्षीकरण हो जाएगा ।।1।।
 दृष्टियोग करने के लिए अपनी दोनों आँखें बंद करके उनके मध्य सामने अंधकार में एकटक देखते रहो, इससे कभी-न-कभी दोनों दृष्टि-रेखाएँ एक विन्दु पर मिल जाएँगी ।।2।।
और सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में तिल (ज्योतिर्मय विन्दु) और एक तारा दिखाई देंगे । इसलिए तुम ख्याल से दशम द्वार कहलानेवाले सुखमन की ओर एकटक देखते रहो ।।3।।
प्रकाश-मंडल में आश्चर्यमय प्रकाश विद्यमान है और शब्द-मंडल में अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक प्रकृति-मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) होती हैं ।।4।।
अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि (सारशब्द) में ध्यान लगाना ही भवसागर तरने का सबसे उत्तम उपाय है अथवा अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि में ध्यान लगाओ-संसार-सागर तरने के लिए ये सब (मानस जप-सहित मानस ध्यान, दृष्टियोग और शब्दयोग) ही उपाय हैं ।।5।।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि संसार-समुद्र तरने की सरल और सच्ची युक्ति (उपाय) वही प्राप्त करता है, जो दिन-रात गुरु-सेवा में रचा-पचा (अनुरक्त, लीन, संलग्न या डूबा हुआ) रहता है ।।6।।

टिप्पणी-1- गुरुमंत्र का मानस जप करना भी एक प्रकार का ध्यान ही है; क्योंकि मानस जप में जप के शब्दों का बारंबार स्मरण करते हैं । मानस जप से गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है । पद्य में पहले गुरु-ध्यान करने का आदेश दिया गया है । यहाँ गुरु-ध्यान के ही अन्तर्गत गुरुमंत्र का मानस जप करना भी ले लिया गया है । 97वें पद्य में मानस ध्यान करने के पूर्व मानस जप करने का आदेश तो है ही; देखें- श्श् अति पावन गुरुमंत्र, मनहि मन जाप जपो । उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।य् 2- दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं । इसकी धार प्रकाशमयी होती है और जाग्रत्काल में आँखों के खुले रहने पर इनके दोनों तिलों-होकर बहिर्मुख होती है । रेखा के लिए कहा जाता है कि वह अनेक विन्दुओं से बनी होती है; उसमें सिर्फ लंबाई होती है; चौड़ाई अथवा मुटाई नहीं और दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है । दृष्टिधार पूर्णतः रेखा के समान है । जब दोनों दृष्टि-रेखाएँ दृष्टियोग का अभ्यास करने के क्रम में निर्दिष्ट स्थान पर अन्दर में जुड़ जाती हैं, तब ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है । 3- 94वें पद्य में कहा गया है कि दोनों दृष्टिधारों को आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में जोड़ने पर ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है और 119वें पद्य में लिखा गया है कि सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में एक तारा दरसता है । इससे जानने में आता है कि ज्योतिर्मय विन्दु और एक तारा-दोनों आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़ते हैं । प्रस्तुत पद्य में तो स्पष्टतः कहा ही गया है कि सुखमन में तिल और तारा दिखाई पड़ते हैं । 4- 58वें पद्य के कुछ चरण चौपई (जयकरी) छन्द के हैं और कुछ चरण सखी छन्द के । चौपई छन्द के प्रत्येक चरण में 15-15 मात्रएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु । सखी छन्द के प्रत्येक चरण में 14-14 मात्रएँ होती हैं और अन्त में गुरु-गुरु-गुरु या लघु-गुरु-गुरु ।


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शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

सांयकालीन सन्त-स्तुति sanmtmat padawali

ईश-स्तुति (सांयकालीन)



प्रातः सांयकालीन सन्त-स्तुति
सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी।।सब.।।1।।
दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-घ्यान निधि जग-उपकारी।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि
सरल-सरल जग में परचारी।।सब.।।2।।
धनि- ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी
धनि नानक गुरू महिमा भारी ।। सब.।।3।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी।
दादू सुन्दर सुर श्वपच रवि
जगजीवन पलटू भयहारी।। सब.।।4।।
सतगुरु देवी अरू जे भये, हैं,
होंगे सब चरणन शिर धारी।
भजत है ‘मेँहीँ ’ धन्य-धन्य कहि
गही सन्त पद आशा सारी।। सब.।।5।।

अपराह्न एवं सायंकालीन विनती 
प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये, विनवौं कर जोरी।
पल-पल छोह न छोडि़ये, सुनिये गुरु मोरी ।।1।।
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी।
पाएउँ पुनि अजहूँ नहीं, रहूँ इन्हतें दूरी ।।2।।
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता।
भक्ति-भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता। ।।3।।
गुरु दयाल दया करी, दिये भेद बताई।
महा अभागी जीव के, दिये भाग जगाई ।।4।।
दृष्टि टिकै सु्रति धुन रमै, अस करु गुरु दाया।
भजन में मन ऐसो रमै, जस रम सो माया ।।5।।
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, सु्रति चढै़ आकाशा।
सार धुन्न में लीन होई, लहे निज घर वासा ।।6।।
निजपन की जत कल्पना, सब जाय मिटाई।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई ।।7।।
आस त्रास जग के सबै, सब वैर न नेहू।
सकल भुलै एके रहे, गुरु तुम पद स्नेहू ।।8।।
काम क्रोध मद लोभ के, नहिं वेग सतावै।
सब प्यारा परिवार अरू, सम्पति नहिं भावै ।।9।।
गुरु ऐसी करिये दया, अति होइ सहाई।
चरण शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई। ।।10।।
तुम्हरे जोत-स्वरूप अरु, तुम्हरे धुन-रूपा।
परखत रहूँ निशि दिन गुरु, करु दया अनूपा ।।11।।

आरती 
आरती संग सतगुरु के कीजै।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्व तन अग्नि जराई।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल।
पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा।
मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उडि़ चली अकाशा।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निर्मल जोत जरत घट माँहीं।
देखत दृष्टि दोष सब छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै।
सतमत-द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली।
चढि़-चढि़ उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै । ।13।।

पूज्यपाद महर्षि मे मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा रचित आरती जो उपरिलिखित आरती आरती के बाद गायी जाती है - 
आरति तन मन्दिर में कीजै।
दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै ।।1।।
चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्जवल।
ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।2।।
जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा।
निरखि निरखि जोती तज दीजै ।।3।।
शब्द सुरत अभ्यास सरलतर।
करि करि सार शबद गहि लीजै ।।4।।
ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि।
भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै ।।5।।
भव-खण्डन आरति यह निर्मल।
करि ‘मेँहीँ ’ अमृत रस पीजै ।।6।।

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

महर्षि मेँहीँ- पदावली bhajan with Video

ईश-स्तुति  (प्रातः कालीन)

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में।
निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।1।।

सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में गति भाँति के हू पार में।।2।।

सूरत निरत के पार में सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में सारे प्रप´चन्ह पार में।।3।।

सापेक्षता के पार में त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्म काल के पार में सारे ज्जालन्ह पार में।।4।।

अद्वय अनामय अमल अति आधेयता-गुण पार में।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार मैं-तू पार मे।।5।।

पुनि ओऊम् सोहम् पार में अरू सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।6।।

हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में।।7।।

सत्शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में।
सद्गुरु करूण कर तर ठहर धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में।।8।।




(५८ )

प्रथमहिं  धारो गुरु को ध्यान | 
              हो स्तुति निर्मल हो बिंदु ज्ञान || १ || 
दैउ नैन बिच सन्मुख देख | 
               इक बिन्दु मिलै दृष्टि दैउ रेख ||२|| 
सुखमन  झलकै तिल तारा | 
                    निरख सुरत दशमी द्वारा || ३|| 
जोति मण्डल में अचरज जोत | 
           शब्द मण्डल अनहद शब्द होत || ४||
अनहद में  धुन सत लौ लाय | 
                 भव जल तरिबो यही उपाय || ५|| 
मेँहीँ युक्ति सरल साँची | 
                         हलै जो गुरु सेवा राँची || ६|| 







(६७)
नुकते सफेद सन्मुख, झलके झलाझली ।।
शहर में नजर स्थिर कर, तन मन की चंचली ॥१॥
संतों ने कही राह यही, शांति की असली ।
शांति को जो चाहता, तज और जो नकली ॥२॥
यह जानता कोई राजदाँ, गुरु की शरण जो ली।
इनके सिवा न आन जो, मद-मान चलन ली ॥३॥
अति दीन होके जिसने, सत्संग सुमति ली।
अपने को सोई मेँ हीँ ', गुरु शरण में कर ली ॥४॥










   
(१२३)
॥दोहा॥
समय गया फिरता नहीं, झटहिं करो निज काम।
जो बीता सो बीतिया, अबहु गहो गुरु नाम ॥१॥
सन्तमता बिनु गति नहीं, सुनो सकल दे कान।।
जौं चाहो उद्धार को, बनो संत-संतान ॥२॥
‘में ही में ही भेद यह, सन्तमत कर गई।
सबको दियो सुनाइ के, अब तू रहे चुपाइ ॥३॥

भावार्थ-बीता हुआ समय लौटकर फिर नहीं आता, इसलिए शीघ्र ही अपना ईश्वर-भक्तिरूपी काम आरंभ कर दो । जो समय बीत गया, उसकी तो बात ही छोड़ दो; अब जो समय बचा हुआ है, उसमें भी तो गुरुमंत्र का जप करो  अथवा आदिगुरु परमात्मा के असली नाम ध्वन्यात्मक सार शब्द को पकड़ने की कोशिश करो ॥१॥
सब कोई ध्यान देकर सुनो कि संतों के विचारों को अपनाये बिना किसी को भी परम मोक्ष नहीं हो सकता। इसलिए यदि अपना परम कल्याण चाहते हो, तो संतों के विचारों को अपनाने वाले बनो ॥२॥
सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज कहते हैं कि संतों का छिपा हुआ गंभीर ज्ञान पद्यों में गा-गाकर सबको सुना दिया; अब मैं  चुप्पी साधकर रहता हूँ; तात्पर्य यह कि अब मैं पद्य-रचना के द्वारा कुछ कहना बंद करता हूँ ॥३॥







(१३६)
गुरु हरि चरण में प्रीति हो, युग काल क्या करे ।।
कछुवी की दृष्टि दृष्टि हो, जंजाल क्या करे ॥१॥

जग नाश का विश्वास हो, फिर आस क्या करे ।
दृढ़ भजन धन ही खास हो, फिर त्रास क्या करे ॥२॥

वैराग-युद अभ्यास हो, निराश क्या करे ।
सत्संगी-गढ़ में वास हो, भव-पाश क्या करे ॥३॥

त्याग पंच पाप हो, फिर पाप क्या करे ।
सत बरत में दृढ़ आप हो, कोई शाप क्या करे ॥४॥

 पूरे गुरू का संग हो, अनंग क्या करे।
“मेँहीँ  जो अनुभव ज्ञान हो, अनुमान क्या करे ॥५॥




















































सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

ईश-स्तुति (प्रातः कालीन)

ईश-स्तुति (प्रातः कालीन)



ईश-स्तुति
सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर औरू अक्षर पार में।
निर्गुण के पार में सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में मन बुद्धि वच के पार में।
गो गुण विषय पँच पार में गति भाँति के हू पार में।।2।।
सूरत निरत के पार में सब द्वन्द्व द्वैतन्ह पार में।
आहत अनाहत पार में सारे प्रप´चन्ह पार में।।3।।
सापेक्षता के पार में त्रिपुटी कुटी के पार में।
सब कर्म काल के पार में सारे ज्जालन्ह पार में।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति आधेयता-गुण पार में।
सत्ता स्वरूप अपार सर्वाधार मैं-तू पार मे।।5।।
पुनि ओऊम् सोहम् पार में अरू सच्चिदानन्द पार में।
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो पुनि व्याप्य व्यापक पार में।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों जो हैं सान्तन्ह पार में।
सर्वेश हैं अखिलेश हैं विश्वेश हैं सब पार में।।7।।
सत्शब्द धर कर चल मिलन आवरण सारे पार में।
सद्गुरु करूण कर तर ठहर धर ‘मेँहीँ’ जावे पार में।।8।।

प्रातः सांयकालीन सन्त-स्तुति
सब सन्तन्ह की बडि़ बलिहारी।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी।।सब.।।1।।
दुख-भंजन भव-फंदन-गंजन,
ज्ञान-घ्यान निधि जग-उपकारी।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि
सरल-सरल जग में परचारी।।सब.।।2।।
धनि- ऋषि-सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी,
शंकर रामानन्द धन्य अघारी।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी
धनि नानक गुरू महिमा भारी ।। सब.।।3।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी,
तुलसी साहब अति उपकारी।
दादू सुन्दर सुर श्वपच रवि
जगजीवन पलटू भयहारी।। सब.।।4।।
सतगुरु देवी अरू जे भये, हैं,
होंगे सब चरणन शिर धारी।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य-धन्य कहि
गही सन्त पद आशा सारी।। सब.।।5।।

प्रातःकालीन गुरु-स्तुति
‘‘दोहा’’
मंगल मूरति सतगुरु, मिलवैं सर्वाधार।
मंगलमय मंगल करण, विनवौं बारम्बार।।1।।
ज्ञान-उदधि अरू ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप।।2।।
सकल भूल-नाशक प्रभू, सतगुरु परम कृपाल।
नमो कंज-पद युग पकडि, सुनु प्रभुं नजर निहाल।।3।।
दया दृष्टि करि नाशिये, मेरो भूल अरू चूक।
खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना,पाणि जोडि़ कहुँ कूक।।4।।
नमो गुरु सतगुरु नमो, नमो नमो गुरुदेव।
नमो विघ्न हरता गुरु, निर्मल जाको भेव।।5।।
ब्रह्मरूप सतगुरु नमो, प्रभु सर्वेश्वर रूप।
राम दिवाकर रूप गुरु, नाशक भ्रम-तम-कूप।।6।।
नमो सुसाहब सतगुरु, विघ्न विनाशक द्याल।
सुबुधि विगासक ज्ञान-प्रद, नाशक भ्रम-तम-जाल।।7।।
नमो-नमो सतगुरु नमो, जा सम कोउ न आन
परम पुरूषहू तें अधिक, गावें सन्त सुजान।।8।।

छप्पय 
जय जय परम प्रचण्ड, तेज तम-मोह-विनाशन।
जय जय तारण तरण, करन जन शुद्ध बुद्ध सन।।
जय जय बोध महान, आन कोउ सरवर नाहीं।
सुर नर लोकन माहिं, परम कीरति सब ठाहीं।।
सतगुरु परम उदार हैं, सकल जयति जय-जय करें।
तम अज्ञान महान् अरू, भूल-चूक-भ्रम मम हरें।।1।।
जय जय ज्ञान अखण्ड, सूर्य भव-तिमिर-विनाशन।
जय-जय-जय सुख रूप, सकल भव-त्रास-हरासन।।
जय-जय संसृति-रोग-सोग, को वैद्य श्रेष्ठतर ।
जय-जय परम कृपाल, सकल अज्ञान चूक हर।।
जय-जय सतगुरु परम गुरु, अमित-अमित परणाम मैं।
नित्य करूँ, सुमिरत रहूँ, प्रेम-सहित गुरु नाम मैं।।2।।
जयति भक्ति-भण्डार, ध्यान अरू ज्ञान-निकेतन।
योग बतावनिहार, सरल जय-जय अति चेतन।।
करनहार बुधि तीव्र, जयति जय-जय गुरु पूरे।
जय-जय गुरु महाराज, उक्ति-दाता अति रूरे।।
जयति-जयति श्री सतगुरु, जोडि पाणि युग पद धरौं।
चूक से रक्षा कीजिये, बार-बार विनती करौं।।3।।
भक्ति योग अरू ध्यान को, भेद बतावनिहारे।
सतसंगति अरू सूक्ष्म वारता, देहि बताई
श्रवण मनननिदिध्यास, सकल दरसावनिहारे।
अकपट परमोदार न कछु, गुरु धरे छिपाई।।
जय-जय-जय सतगुरु सुखद, ज्ञान सम्पूरण अंग सम।
कृपा-दृष्टि करि हेरिये, हरिय युक्ति बेढंग मम।।4।।

प्रातः कालीन नाम-संकीत्र्तन
अव्यक्त अनादि अनन्त अजय,
अज आदिमूल परमातम जो।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा,
जिनसे कहिये स्फोट है सो ।।1।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही।
ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओउम् वही।
अति मधुर प्रणव ध्वनि धार वही,
है परमातम-प्रतीक वही ।।2।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही,
है सारशबद सत्शब्द वही।
है सत् चेतन अव्यक्त वहीं,
व्यक्तो में व्यापक नाम वहीं, ।।3।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही,
सर्व-कर्षक हरि-कृष्ण नाम वही।
है परम प्रचण्डिनि शक्ति वही,
है शिव शंकर हर नाम वही, ।।4।।
पुनि राम नाम है अगुण वही,
है अकथ अगम पूर्ण काम वही।।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही,
चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।।5।।
है एक ओउम् सतनाम वही,
ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही,
मुनि-सेवित गुरु का नाम वही।
भजो ऊँ ऊँ प्रभु नाम यही,
भजो ऊँ ऊँ मेँहीँ नाम यही। ।।6।।

आरती 
आरती संग सतगुरु के कीजै।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्व तन अग्नि जराई।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन-थाल रवि-शशि फल-फूला।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल।
पोहप-माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा।
मधुर-मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उडि़ चली अकाशा।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निर्मल जोत जरत घट माँहीं।
देखत दृष्टि दोष सब छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै।
सतमत-द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली।
चढि़-चढि़ उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै । ।13।।

पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा रचित आरती जो उपरिलिखित आरती आरती के बाद गायी जाती है
आरति तन मन्दिर में कीजै।
दृष्टि युगल कर सन्मुख दीजै ।।1।।
चमके विन्दु सूक्ष्म अति उज्जवल।
ब्रह्मजोति अनुपम लख लीजै ।।2।।
जगमग जगमग रूप ब्रह्मण्डा।
निरखि निरखि जोती तज दीजै ।।3।।
शब्द सुरत अभ्यास सरलतर।
करि करि सार शबद गहि लीजै ।।4।।
ऐसी जुगति काया गढ़ त्यागि।
भव-भ्रम-भेद सकल मल छीजै ।।5।।
भव-खण्डन आरति यह निर्मल।
करि ‘मेँहीँ अमृत रस पीजै ।।6।।

सन्त सद्गुरू महषि मेँहीँ परमहंस जी महाराज फोटो सहित जीवनी galary with Biography

पूज्य गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज  ...

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