महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अमृतवाणी
पुण्य का फल अलग और पाप का फल अलग मिलता है। पाप का नाश कैसे हो, इसके लिए उपनिषद् में बतलाया गया है-यदि शैल समं पापं विस्तीर्णं बहुयोजनम्। भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।
मन को स्थूल विषय से हटाकर सूक्ष्म में ले चलो। उससे भी ऊपर निर्विषय की ओर ले चलो। सब व्यक्त पदार्थों से अपने को (ख्याल को) खींचो। मन कभी रूप में, कभी रस में, कभी गंध में इत्यादि विषयों की ओर दौड़ता रहता है। जब मन विषयों को छोड़कर अलग हो जाएगा तब पाप नहीं होगा। ध्यान में मन का सिमटाव होता है। सिमटाव से ऊर्ध्वगति होती है, ऊर्ध्वगति से आवरण का भेदन होता है। आवरण पार होने पर आवरणों का जो गुण है, वह नहीं रहेगा। ऊर्ध्वगति होने के कारण पाप से छूट जाएँगे।
जैसे कोई पानी पर चलते - चलते जमीन पर आता है। उसी प्रकार माया के द्वारा माया को पार करते हैं। हम कहते हैं माया मिथ्या – ही - मिथ्या है, लेकिन लोगों को इसी का सहारा लेना पड़ता है। जैसे कोई पानी में डूबने लगता है; तो उससे बचने के लिए उसी पानी का अवलम्ब लेकर पार हो जाता है। उसी प्रकार माया में डूबता हुआ मानव माया का अवलम्ब लेकर माया के पारकर हो जाते हैं।
श्री सद्गुरु महाराज की जय