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शनिवार, 3 नवंबर 2018

संतमत स्तुति बिनती भावार्थ सहित महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ,भावार्थ और टिपण्णी-सहित (टीकाकार :- छोटेलाल दास) Maharshi Menhi Padawali By Chhotelal Das



               महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 


महर्षि मेँहीँ पदावली शब्दार्थ,भावार्थ और टिपण्णी-सहित (टीकाकार :- छोटेलाल दास)
Maharshi Menhi Padawali By Chhotelal Das 


संतमत स्तुति बिनती भावार्थ सहित 



महर्षि मेँहीँ-पदावली
शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणी-सहित
(1)

।। ईश-स्तुति ।।

सब क्षेत्र क्षर अपरा परा पर, औरु   अक्षर   पार  में ।   
निर्गुण सगुण के पार में, सत् असत् हू के पार में ।।1।।
सब नाम रूप के पार में, मन बुद्धि वच के पार में ।   
गो गुण विषय पँच पार में, गति भाँति के हू पार में ।।2।।
सूरत निरत के पार में, सब  द्वन्द्व  द्वैतन्ह पार में ।   
आहत  अनाहत  पार  में,  सारे  प्रपंचन्ह  पार  में ।।3।।
सापेक्षता  के  पार  में, त्रिपुटी कुटी के  पार में ।   
सब  कर्म  काल  के  पार  में,  सारे  जंजालन्ह पार  में ।।4।।
अद्वय अनामय अमल अति, आधेयता गुण पार में ।   
सत्तास्वरूप  अपार  सर्वाधार  मैं-तू  पार  में ।।5।।
पुनि ओ3म् सोऽहम् पार में, अरु सच्चिदानन्द पार में ।   
हैं अनन्त व्यापक व्याप्य जो, पुनि व्याप्य व्यापक पार में ।।6।।
हैं हिरण्यगर्भहु खर्व जासों, जो हैं सान्तन्ह पार में ।   
सर्वेश हैं अखिलेश हैं, विश्वेश हैं सब पार में ।।7।।
सत्शब्द  धरकर  चल  मिलन, आवरण  सारे  पार  में ।   
सद्गुरु करुण कर तर  ठहर,  धर ‘मेँहीँ’  जावे  पार में ।।8।।

शब्दार्थ-क्षेत्र=खेत, शरीररूपी खेत, शरीर (देखें, गीता, अ0 13, श्लोक1) । [ शरीर पाँच प्रकार के हैं-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य । गीता, अध्याय 13 में पाँच स्थूल तत्त्वों, पाँच सूक्ष्म तत्त्वों, कर्म और ज्ञान की दस इन्द्रियों, मन, अहंकार, बुद्धि, जड़ात्मिका मूल प्रकृति, चेतना, संघात (कहे गये का संघरूप), धृति (धारण करने की शक्ति), इच्छा, द्वेष, सुख और दुःख-इन इकतीस तत्त्वों के समुदाय को स-विकार क्षेत्र कहा गया है । अन्तिम चार तत्त्व ही क्षेत्र के विकार हैं । गीता के इस क्षेत्र के अन्दर उक्त पाँचो शरीर आ जाते हैं।,ह् क्षर=नाशवान्, परिवर्त्तनशील, जड़ प्रकृति मंडल (देखें, गीता, अ0 15) । अपरा (स्त्रीo विo)=जो श्रेष्ठ नहीं है, यहाँ अर्थ है-अपरा प्रकृति, निम्न कोटि की प्रकृति, अज्ञानमयी प्रकृति, जड़ प्रकृति-मंडल (देखें, गीता, अ0 7 ) । परा (स्त्रीo विo)=जो श्रेष्ठ है, यहाँ अर्थ है-परा प्रकृति, उच्च कोटि की प्रकृति, ज्ञानमयी प्रकृति, चेतन प्रकृति ( देखें, गीता, अ0 13) । निर्गुण=गुण-रहित, जो त्रय गुणों (सत्त्व, रज और तम) से विहीन हो, चेतन प्रकृति । सगुण=1- त्रय गुण-सहित, 2- त्रय गुणों से बना हुआ, जड़ प्रकृति-मंडल । सत्=जो अविनाशी या अपरिवर्त्तनशील है, चेतन प्रकृति । असत्=जो अविनाशी नहीं है, जो विनाशशील या परिवर्त्तनशील है, जड़ प्रकृति-मंडल । हू=भी । पार=पर, परे, बाहर, ऊपर, विहीन, श्रेष्ठ, भिन्न । नाम-रूप=पदार्थ के नाम, रूप (रंग और आकृति), गंध, स्पर्श, शब्द, स्वाद, अन्य कोई गुण, माप-तौल, संख्या, विस्तार (लम्बाई-चौड़ाई-मुटाई वा गहराई) आदि । मन=भीतर की चार इन्द्रियों में से एक जिसकी मुख्य वृत्ति है प्रस्ताव करना, गुनावन करना या संकल्प-विकल्प करना । (जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओं में धाराप्रवाह उलटी-सीधी बातों का मन में आते रहना मन का संकल्प-विकल्प करना है ।) बुद्धि=निश्चय या विचार करनेवाली भीतर की एक इन्द्रिय । वच=वचन, वाणी, वाक्य । गो=इन्द्रिय । गुण=त्रय गुण, धर्म, स्वभाव, विशेषता । विषय=रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श । गति=गमन, जाना, चाल, चलने की क्रिया, एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की क्रिया, हिलने-डोलने की क्रिया, कंपन । भाँति=प्रकार, विविधता, अनेकता । सूरत=सुरत, चेतन आत्मा, चेतन-वृत्ति । निरत=संलग्न; यहाँ अर्थ है-संलग्नता । (सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने अपनी पुस्तक ‘सन्तवाणी सटीक’ में सन्तवाणियों में आये ‘निरत’ का अर्थ प्रायः संलग्नता ही किया है ।) द्वन्द्व=सुख-दुःख, शीत-उष्ण जैसे परस्पर विरोधी दो भाव; देखें- श्श् शीत उष्णादि द्वन्द्व पर प्रभु की ।य् (141 वाँ पद्य) द्वैत=दो होने का भाव, दोहरा होने का भाव, जोड़ा, द्वन्द्व, विविधता, अनेकता, भिन्नता, अलग होने का भाव, अन्तर, भेद । आहत=चोट खाया हुआ, जिसपर आघात किया गया हो; यहाँ अर्थ है आहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न हुआ हो, जड़ात्मक प्रकृति-मंडलों के शब्द । अनाहत (न+आहत)=जो आहत नहीं हुआ हो, जिसपर आघात नहीं किया गया हो; यहाँ अर्थ है अनाहत शब्द अर्थात् वह शब्द जो किसी पदार्थ के आहत होने पर उत्पन्न नहीं हुआ हो, आदिनाद, सारशब्द । (आदिनाद अत्यन्त अचल अकंप अनन्तस्वरूपी परमात्मा से अलौकिक रीति से उत्पन्न हुआ है ।) प्रपंच=फैलाव, विस्तार, माया, विविधता, उलझन, सृष्टि; देखें- श्श् बिधि प्रपंच गुन अवगुन साना । कहहि बेद इतिहास पुराना ।।य् (रामचरितमानस, बालकाण्ड) सापेक्षता के पार में=जो सापेक्ष नहीं है, जो परस्पर सापेक्ष भावों या पदार्थों में से कुछ भी नहीं कहा जा सकता (सापेक्षता=सापेक्ष होने का भाव । सापेक्ष=स+अपेक्ष । स=साथ, सहित, युक्त । अपेक्ष=अपेक्षा । अपेक्षा=चाहना, आवश्यकता, आसरा, सहारा, भरोसा, तुलना में, अनुपात में । सापेक्ष=अपेक्षा-सहित, जो कोई चाहना रखता हो, जिसे कोई आवश्यकता हो, जो किसी दूसरे पर आधारित हो, जो अपने आपमें स्वतंत्र नहीं-दूसरे के अधीन हो, जो किसी से प्रभावित होता हो, जो किसी की तुलना में किसी प्रकार का हो, जिसका किसी के साथ आनुपातिक संबंध हो । परस्पर सापेक्ष भाव-1- वे दो पदार्थ जिनका आपस में कारण-कार्य या आधार-आधेय का संबंध हो; जैसे पिता-पुत्र और मिट्टी-घड़े में कारण-कार्य का तथा आकाश-बादल में आधार-आधेय का संबंध है । 2- उलटे गुण रखनेवाले दो पदार्थ; जैसे अंधकार-प्रकाश, शीत-उष्ण, जन्म-मरण, जड़-चेतन आदि ।) त्रिपुटी=ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान, ध्याता-ध्येय-ध्यान अथवा भक्ति-भक्त-भगवन्त-जैसे परस्पर संबद्ध तीन पदार्थ अथवा इन तीनों का पारस्परिक अन्तर । त्रिपुटी कुटी=वह स्थान जहाँ तक ज्ञाता-ज्ञेय और ज्ञान-इन तीनों में अन्तर बना रहता है, कैवल्य मंडल । (त्रि=तीन । पुटी=जिसमें कोई चीज रखी जा सके, खोखली जगह ।) कर्म=क्रिया, जो कुछ हो अथवा जो कुछ किया जाय । काल=समय । जंजाल=जग-जाल, प्रपंच, उलझन, फँसाव, बंधन, आवरण । अद्वय=जो दो नहीं हो, जो अनेक नहीं हो, अद्वितीय, जो एक-ही-एक हो, अनुपम, बेजोड़, जिसके समान दूसरा कुछ वा कोई नहीं हो । अनामय (न+आमय=अन्+आमय)=रोग-रहित, विकार-रहित, परिवर्त्तन-रहित, क्षय-रहित । अमल (अ+मल)=निर्मल, मल-रहित, पवित्र, शुद्ध, निर्दोष, निर्विकार । आधेयता=आधेय होने का भाव, किसी पर आधारित रहने का गुण, किसी पर टिके रहने का स्वभाव, किसी के सहारे रहने का भाव । (आधेय=जो किसी पर आधारित हो, जो किसी पर टिका हुआ हो ।) सत्तास्वरूप=सत्तारूप, सबकी सत्ता (अस्तित्व) का कारण ( श्श् करै न कछु कछु होय न ता बिन । सबको सत्ता कहै अनुभव जिन ।।य्-14वाँ पद्य), सबकी सत्ता का मूल आधार, जिसके अस्तित्व पर सबका अस्तित्व कायम हो, परम सत्ता, वास्तविक सत्ता, जिसकी अपनी वास्तविक स्थिति हो, जो अपनी निजी स्थिति से विद्यमान हो, जो अपना आधार आप हो । (सत्ता=अस्तित्व, विद्यमानता, वास्तविकता।) अपार=जिसका वार-पार या ओर-छोर नहीं हो, जिसकी सीमा नहीं हो, असीम, आदि-मध्य-अन्त-रहित । सर्वाधार (सर्व+आधार)=सबका आधार, जिसपर सब कुछ टिका हुआ हो, समस्त प्रकृति-मंडलों का आधार । मैं-तू=द्वैतता, अनेकता, विविधता, अलगाव, सृष्टि के पदार्थों के भिन्न-भिन्न होने का भाव । ओम्=आदिनाद, सारशब्द । (सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ओम् को त्रिकुटी का शब्द नहीं, कैवल्य मंडल का शब्द मानते हैं ।) सोऽहम्=1- अन्तर्नाद, अनहद नाद, अजपा जप, 2- आदिनाद, 3- भँवरगुफा का शब्द । सच्चिदानन्द= सच्चिदानन्द ब्रह्म । (कुछ विचारक परम सत्ता को सत्-चित्-आनन्दमय मानते हैं; परन्तु कुछ अन्य विचारकों का कहना है कि परम सत्ता सच्चिदानन्दमयी नहीं, परा प्रकृति सच्चिदानन्दमयी है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने परा प्रकृति में व्याप्त परमात्म-अंश को सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा है ।) व्यापक=जो किसी में फैला हुआ हो; यहाँ अर्थ है-समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ परमात्म-अंश । व्याप्य=जिसमें कुछ फैलकर रह सके; यहाँ अर्थ है-समस्त प्रकृति-मंडल जिसमें परमात्मा अंश-रूप से फैला हुआ है । (किसी लोहे के गोले को गर्म करने पर गर्मी उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । यहाँ गोला व्याप्य और गर्मी व्यापक कही जायगी ।) हिरण्यगर्भ=1- ब्रह्मा, 2- सारशब्द; देखें  श्श् हिरण्यगर्भं सूक्ष्मं तु नादं बीजत्रयात्मकम् ।य् (योगशिखोपनिषद्) अर्थात् हिरण्यगर्भ सूक्ष्म है । वही तो नाद है, जो त्रयात्मक (त्रय गुणों के सम्मिश्रण से बनी हुई मूल प्रकृति) का बीज है । खर्व=छोटा; देखें- श्श् रुद्धं नहीं नाहि दीर्घं न खर्वं ।य् (13वाँ पद्य) सान्त (स+अन्त)=जिसके आदि-अन्त हों, सीमा-सहित, ससीम, सीमा रखनेवाला पदार्थ, हददार चीज । सर्वेश (सर्व+ईश)=सबका स्वामी, समस्त प्रकृति-मंडलों में व्यापक परमात्म-अंश । अखिलेश (अखिल+ईश)= अखिल विश्व का स्वामी, संपूर्ण ब्रह्माण्डों में व्याप्त परमात्म-अंश । विश्वेश (विश्व+ईश)=एक विश्व का स्वामी, एक विश्व (ब्रह्माण्ड) में व्याप्त परमात्म-अंश । सत्शब्द=अपरिवर्त्तनशील शब्द, आदिनाद । आवरण=स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य अथवा अंधकार, प्रकाश और शब्द । करुण कर=करुणामय हाथ, दयामय हाथ । तर=नीचे । धर=धरकर, पकड़कर ।


भावार्थ-परमात्मा सब शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य) से रहित है । वह क्षर, अपरा, सगुण और असत् कही जानेवाली जड़ प्रकृति तथा अक्षर, परा, निर्गुण और सत् कही जानेवाली चेतन प्रकृति से भी श्रेष्ठ और ऊपर है ।।1।।
वह सब नाम-रूपों से विहीन, मन-बुद्धि आदि अन्तःकरणों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य, कथन में नहीं आ सकनेवाला और कर्म तथा ज्ञान की बाहरी दस इन्द्रियों की पकड़ से भी बाहर है । इसी तरह वह सत्त्व, रज और तम-प्रकृति के इन तीनों गुणों से रहित और रूप-रसादि पंच विषयों से भिन्न है । वह कुछ भी चलायमान या कंपनशील नहीं है, उसके प्रकार भी नहीं हैं ।।2।।
जिस कैवल्य मंडल (सत्लोक) में सुरत की संलग्नता या लीनता होती है, परमात्मा उससे भी ऊपर है । वह सुख-दुःख, शीत-उष्ण जैसे सभी द्वन्द्व भावों से बिल्कुल विहीन है । वह आहत शब्द, अनाहत शब्द और सब सृष्टियों के पार विद्यमान है ।।3।।
वह अंधकार-प्रकाश, सत्-असत्, अगुण-सगुण, आकाश-बादल, पिता-पुत्र जैसे परस्पर सापेक्ष भावों में से कुछ भी कहा नहीं जा सकता । जिस स्थान तक (कैवल्य मंडल तक) त्रिपुटी (ज्ञाता-ज्ञेय और ज्ञान का अंतर) रहती है, परमात्मा उससे भी ऊपर है। वह सब प्रकार की क्रियाओं, देश-काल-दिशाओं और सारे मायिक आवरणों से रहित है ।।4।।
उसकी बराबरी का या उससे श्रेष्ठ दूसरा कोई वा कुछ नहीं है । वह अत्यन्त निर्विकार-निर्दोष और विशुद्ध है । वह किसी दूसरे पर आधारित रहने का गुण नहीं रखता । वह अपने ही अस्तित्व से अस्तित्ववान् है और सबके अस्तित्व का परम कारण है। वह आदि-अंत और
मध्य-रहित, समस्त प्रकृति-मंडलों का आधार और मैं-तू (सृष्टि के पदार्थों की अनेकता) के पार है ।।5।। फिर वह ओम् तथा सोऽहम् नामक ध्वन्यात्मक शब्दों के पार में और सच्चिदानन्द ब्रह्म से भी श्रेष्ठ है । ऐसा जो परमात्मा आदि-अन्त-रहित है, अंश-रूप से प्रकृति-मंडलों में अत्यन्त सघनता से व्यापक है और जो स्वयं व्याप्य (प्रकृति-मंडल) ही है, वही फिर व्याप्य (प्रकृति-मंडल) से और प्रकृति-मंडलों में व्यापक अपने अंश से बाहर भी है ।।6।।
ब्रह्मा या समष्टि प्राण (आदिनाद) भी जिससे बहुत छोटा (निम्न दर्जे का) है, जो सीमा रखनेवाले सभी पदार्थों के पार में है, वह अंशरूप से सर्वेश (समस्त प्रकृति-मंडलों का स्वामी), अखिलेश (संपूर्ण ब्रह्मांडों का स्वामी) और विश्वेश (एक विश्व या ब्रह्मांड का स्वामी) कहलानेवाला परमात्मा सबके पार में है ।।7।।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि सत्शब्द को पकड़कर अंधकार, प्रकाश और शब्द-इन तीनों आवरणों के पार में उस परमात्मा से मिलने के लिए चलो । फिर वे कहते हैं कि सन्त सद्गुरु के दयामय हाथ के नीचे रहकर और उसे पकड़कर ही कोई उत्तफ़ आवरणों के पार जा सकता है; तात्पर्य यह कि सेवा के द्वारा सद्गुरु की कृपा प्राप्त करके और उनका आशा-भरोसा रखकर ही कोई शिष्य उक्त आवरणों के पार जा सकता है ।।8।।

टिप्पणी-1- मिट्टी से अनेक भिन्न-भिन्न बरतन बनाये जाते हैं; उन बरतनों की भिन्न-भिन्न आकृतियाँ होती हैं और भिन्न-भिन्न नाम भी । मिट्टी मानो नामरूप-विहीन है । जब मिट्टी से अनेक विभिन्न बरतन बनाये जाते हैं, तब मिट्टी नाम-रूपों से संयुक्त हो जाती है । नाम-रूप सत्य नहीं हैं, सत्य है मिट्टी । बरतन के फूट जाने पर नाम-रूप मिट जाते हैं और तब बच जाती है सिर्फ नामरूप-विहीन मिट्टी । इसी तरह सृष्टि के पूर्व परमात्मा नामरूप-विहीन होता है । उसके द्वारा अंशरूप से नाम-रूप को धारण कर लेना ही सृष्टि का होना है । इन्द्रियाँ नामरूपों को ही ग्रहण कर पाती हैं, नामरूपों को धारण कर लेनेवाले परम तत्त्व परमात्मा को नहीं । पदार्थों में पाये जानेवाले विस्तार, विशेषता (गुण) या लक्षण-सभी नामरूपों के अन्दर आ जाते हैं । लोकमान्य बाल गंगाधर तिलकजी महोदय ‘गीता-रहस्य’ के अध्यात्म-प्रकरण में लिखते हैं कि वस्तुतः देखा जाय तो देश और  काल,  माप  और  तौल  या  संख्या इत्यादि सब नाम-रूप के ही प्रकार हैं । 2- कैवल्य मंडल निर्मल (त्रय गुण-विहीन) चेतन मंडल है । निर्मल चेतन का जो अंश नीचे पिड में आकर इन्द्रियों के संग मिल-जुल गया है, उसे ही सुरत (चेतन वृत्ति, चेतन आत्मा) कहते हैं । ‘सुरत’ शब्द का मूलरूप ‘स्त्रोत’ (धारा) है । ‘सुरत’ का अर्थ मैथुन, अत्यन्त लीन, ध्यान और ख्याल भी होता है । राधास्वामीमत में ‘सुरत’ का अर्थ ‘अन्दर में सुनने की शक्ति’ और ‘निरत’ का अर्थ ‘अन्दर में देखने की शक्ति’ लिया जाता है । कुछ सन्तों की वाणियों से पता चलता है कि उन्होंने जड़ावरणों में फँसी हुई चेतनवृत्ति को सुरत और जड़ावरणों से ऊपर उठी हुई चेतनवृत्ति को निरत या निरति कहा है । सन्त कबीर साहब ने एक स्थल पर अन्तर्मुख मन को सुरत कहा है; देखें- श्श् मन उलटै तो सुरत कहावै ।य्  ु किसी मंडल का केन्द्र उससे अलग नहीं हो सकता । कैवल्य मंडल का केन्द्र परमात्मा ही है । जिसका जो मंडल होता  है, वह उसी में जाकर लीन होता है । सुरत साधना के द्वारा सिमटकर और ऊपर उठती हुई कैवल्य मंडल के केन्द्र में लीन होती है । परमात्मा कैवल्य मंडल से बाहर कितना अधिक है, कहा नहीं जा सकता । संत चरणदासजी ने भी लिखा है कि सुरति-निरति की पहुँच परमात्म-पद तक नहीं है- श्श् सुरति-निरति की गम नहीं सजनी, जहाँ मिलन को अटके ।य् 3- वे दो शब्द जो अर्थ की दृष्टि से आपस में किसी-न-किसी प्रकार का संबंध रखते हों, परस्पर सापेक्ष शब्द कहलाते हैं । आकाश और बादल, मिट्टी और घड़ा, पिता और पुत्र-ये सापेक्ष शब्द हैं; क्योंकि आकाश और बादल में आधार-आधेय का, मिट्टी और घड़े में तथा पिता और पुत्र में कारण-कार्य का संबंध है । लोकमान्य बालगंगाधर तिलकजी महोदय ने उलटे अर्थ रखनेवाले दो शब्दों को भी परस्पर सापेक्ष शब्द कहा है; जैसे-अंधकार-प्रकाश, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, अमृत-विष, जड़-चेतन, सत्-असत्, निर्गुण-सगुण आदि । ऐसे सापेक्ष भावों से संसार ओतप्रोत है । इनसे विहीन सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती । ये परस्पर सापेक्ष भाव एक ही सिन्नड्ढे के दो पहलुओं की तरह आपस में जुड़े हुए हैं । सृष्टि में सुख रहेगा, तो दुःख भी रहेगा; सुख नहीं रहेगा, तो दुःख भी नहीं रहेगा ।  सृष्टि के पूर्व एक-ही-एक परमात्मा था, उससे भिन्न या उसकी बराबरी का दूसरा कुछ भी नहीं था । यदि सृष्टि के पूर्व के परमात्मा को अंधकार कहें, तो तुरंत शंका होगी कि तब उस समय प्रकाश भी होगा । इसी तरह यदि सृष्टि-पूर्व परमात्मा को आकाश कहें, तो तुरन्त मन में अनुमान होगा कि तब उस समय बादल भी होंगे; क्योंकि हम आकाश में बादल देखते हैं; परन्तु इस प्रकार का अनुमान या शंका गलत होगी; क्योंकि सृष्टि-पूर्व जब एक-ही-एक परमात्मा था, तब दूसरी चीज की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं ! इसलिए परमात्मा को न अंधकार कह सकते हैं, न प्रकाश; न आकाश कह सकते हैं, न बादल । जड़-चेतन, सगुण-निर्गुण, अंधकार-प्रकाश, शीत-उष्ण, ज्ञाता-ज्ञेय, दूर-निकट, व्यापक-व्याप्य, व्यक्त-अव्यक्त, क्षर-अक्षर जैसे समस्त सापेक्ष भाव सृष्टि होने पर ही हो सकते हैं । सृष्टि होने पर भी परमात्मा के सदृश या उससे उलटा गुण रखनेवाला दूसरा कुछ नहीं है । इसीलिए किसी वस्तु के साथ तुलना करके भी परमात्मा के बारे में कुछ नहीं बताया जा सकता । सृष्टि में जो कुछ भी है, सब परमात्मा का ही रूप है- श्श् सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म ।य् सब परमात्मा से बने हैं और सबमें परमात्मा व्याप्त है । इसी दृष्टि से कभी-कभी परमात्मा को सत्-असत्, सगुण-निर्गुण, दूर-निकट-दोनों कहा जाता है । 4- जिसपर कोई वस्तु टिकी रहती है, उसे आधार कहते हैं और जो वस्तु किसी पर टिकी रहती है, उसे आधेय कहते हैं; जैसे टेबुल पर पुस्तक रखी हो, तो टेबुल को आधार और पुस्तक को आधेय कहेंगे । संसार की हर वस्तु किसी-न-किसी आधार पर टिकी हुई है और सब कुछ अन्ततः परमात्मा पर टिका हुआ है; परन्तु परमात्मा किसी पर भी टिका हुआ नहीं है, वह अपना आधार आप ही है; उसमें स्थान और स्थानीय का अन्तर नहीं है । इसीलिए परमात्मा को ‘आधेयता गुण पार में’ कहा गया है । 5- संत कबीर साहब ने भी कहा है कि परमात्मा ओम्-सोऽहम् शब्द नहीं है- श्श् ओअं सोहं अर्ध उर्ध नहि, स्वासा लेख न को है ।य्  श्श् सोहंगम नाद नहि भाई, न बाजै संख सहनाई ।य् सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ओम् को कैवल्य मंडल (सत्लोक) का शब्द मानते हैं। कुछ संत ओम् को सहस्त्रदल कमल से ठीक ऊपर स्थित त्रिकुटी का शब्द मानते हैं; देखें- श्श् त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजै बजै नगारा । लाल बरन सूरज उजियारा, चत्र कँवल मँझार शब्द ओंकारा है ।य् (कबीर-शब्दावली, भाग 1)  श्श् ओं शब्द वेद बतलावे । त्रिकुटी मद्ध माहि से आवे ।।य् (घटरामायण)  श्श् लाल सूर जहँ गुरु का रूपा । ओंकार पद त्रिकुटी भूपा ।।य् (संत राधास्वामी) साँस लेते समय ‘सो’ जैसी ध्वनि होती है और साँस छोड़ते समय ‘हं’ जैसी । इस तरह साँस के साथ बिना मुँह से जपे ही रात-दिन ‘सोहं’ शब्द ध्वनित होता रहता है । समस्त अन्तर्नादों को भी सोहं शब्द या अजपा जप इसीलिए कहा जाता है कि वे भी बिना मुँह से जपे ही साँस द्वारा होनेवाले ‘सोहं’ शब्द की तरह निरन्तर ध्वनित हो रहे हैं; परन्तु प्रायः सन्तों ने आदिनाद को ही सोहं शब्द कहा है । कुछ लोग कहते हैं कि आदिनाद को सोहं (सोऽहम्=सः+अहम्=वह मैं हूँ) इसलिए कहते हैं कि वह साधक की सुरत को खींचकर अपने निज मंडल-कैवल्य मंडल में पहुँचा देता है, जहाँ साधक अनुभव करता है कि जो परमात्मा है, वही मैं हूँ । कुछ संत सोहं को भँवरगुफा का शब्द मानते हैं; देखें- श्श् भँवर गुफा में सोहं राजे, मुरली अधिक बजाया है ।य् (संत कबीर साहब)  श्श् भँवर गुफा के बीच, उठत है सोहं बानी ।य् (संत पलटू साहब)  श्श् भँवर गुफा ढिग सोहं बंसी, रीझ रही मैं सुन-सुन तान ।य्(संत राधास्वामी)  अपने एक पद्य में संत कबीर साहब ने ओम्-सोऽहम् को त्रिकुटी का शब्द बतलाया है; देखें- श्श् ओअं सोहं बाजा बाजै, त्रिकुटी सुरत समानी ।य् 6- परमात्मा अंश-रूप से प्रकृति-मंडल में फैला हुआ है, इसलिए वह व्यापक और प्रकृति-मंडल व्याप्य हुआ । व्याप्य (प्रकृति-मंडल) भी परमात्मा ही है, इसको इस तरह समझाया जा सकता है-जल से बनी हुई बर्फ में जल ओतप्रोत है और बर्फ तथा जल-दोनों तत्त्वतः एक ही हैं; फिर भी दोनों के गुणों में भिन्नता है; जैसे जल अपेक्षाकृत सूक्ष्म है और बर्फ स्थूल; जल से खेती की सिचाई होती है; परन्तु बर्फ गिरने से खेती का नाश हो जाता है । इसी प्रकार परमात्मा से बने प्रकृति-मंडल में परमात्मा ओतप्रोत है और प्रकृति-मंडल तथा परमात्मा में तात्त्विक अन्तर नहीं, गुणों का अन्तर है- श्श् जो गुन-रहित सगुन सोइ कैसे । जलु हिम उपल बिलग नहि जैसे ।।य् (रामचरितमानस, बालकांड) परमात्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है, जबकि प्रकृति-मंडल उसकी अपेक्षा स्थूल । परमात्मा परम सनातन, परम पुरातन एवं परम अविनाशी है, जबकि प्रकृति-मंडल नवीन, परिवर्त्तनशील, नाशवान् और अस्वाभाविक है । परमात्मा के साक्षात्कार से जीव आवागमन के चक्र से छूट जाता है; परन्तु प्रकृति-मंडल में पड़ा हुआ जीव जन्म-मरण का दुःख भोगता रहता है । अद्वैतवाद के अनुसार, परमात्मा के सिवा दूसरा कुछ भी सत्य नहीं है, तब यही कहना पड़ेगा कि व्याप्य (प्रकृति-मंडल) भी परमात्मा ही है-परमात्मा का ही रूप है । रामचरितमानस, उत्तरकांड में भी परमात्मा को व्यापक और व्याप्य-दोनों कहा गया है; देखें- श्श् व्यापक व्याप्य अखंड अनन्ता । अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता ।।य् परमात्मा समस्त प्रकृति-मंडलों में अंशरूप से व्यापक है और समस्त प्रकृति-मंडल परमात्मा के अन्दर हैं । इसलिए भी परमात्मा को व्यापक और व्याप्य-दोनों कह सकते हैं । पद्य में व्यापक और व्याप्य को एक ही बताकर अद्वैतवाद का समर्थन किया गया है । 7- जिस आदिनाद को ओंकार, समष्टि प्राण, सारशब्द आदि कहा जाता है, उसीसे प्रकाश की उत्पत्ति हुई है; देखें- श्श् ओअंकार हुआ परगास । साजे धरती धउल अकास ।।य् (गुरु नानकदेवजी) समुद्र को रत्नगर्भ कहते हैं; क्योंकि वह अपने गर्भ में रत्न छिपाये हुए है । इसी तरह हिरण्यगर्भ वह है जो अपने गर्भ में हिरण्य छिपाये हुए हो अथवा जिससे हिरण्य की उत्पत्ति हुई हो- श्श् हिरण्यं गर्भे यस्य सः हिरण्यगर्भः ।य् हिरण्य का अर्थ है-सोना; परन्तु ‘हिरण्यगर्भ’ में ‘हिरण्य’ का लाक्षणिक अर्थ है-सुनहला प्रकाश । प्रकाश की उत्पत्ति सारशब्द से हुई है, इसीलिए सारशब्द को हिरण्यगर्भ भी कहते हैं । विष्णु और महेश के साथ जिस ब्रह्मा की चर्चा की जाती है, उसे भी हिरण्यगर्भ कहते हैं; क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार, वह सुवर्णमय अंडे से उत्पन्न हुआ था- श्श् हिरण्यं (हेममयं अंडम्) गर्भः (उत्पत्तिस्थानः) यस्य सः हिरण्यगर्भः ।य् सांख्यशाÐ में समष्टि महत् (सवर्व्यापी बुद्धि) को हिरण्यगर्भ कहा गया है । 8- परमात्मा न उत्पन्न होता है, न विनष्ट होता है; न घटता है, न बढ़ता है । वह सब प्रकार के विकारों से रहित है । इसीलिए वह अनामय कहा गया है । 9- ऋषियों और अन्य संतों ने भी परमात्म-तत्त्व को द्वैत-द्वन्द्व, सापेक्ष भावों और परस्पर सापेक्ष पदार्थों से परे बताया है; देखें-द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि । भावाभावविहीनोऽस्मि । सत्यासत्यादि विहीनोऽस्मि । (मैत्रेयी उपनिषद्)  श्श् जहँ नहि सुख दुख साँच झूठ नहि, पाप न पुन्न पसारा । नहि दिन रैन चन्द नहि सूरज, बिना जोति उँजियारा ।। (संत कबीर साहब) 10- परमात्मा सब मायिक पदार्थों के बाहर ही नहीं है, बल्कि मायिक पदाथों में भी अंशरूप से व्यापक है; परन्तु उसकी प्राप्ति मायिक पदार्थों से बाहर होने पर ही होती है। 11- क्षेत्र (खेत) में हम जो बोते हैं, वही काटते हैं, इसी तरह शरीर से हम जैसा कर्म करते हैं, उसका फल भी हम वैसा ही पाते हैं, इसीलिए शरीर को क्षेत्र कहा गया है। 12- पहले, सातवें और सोलहवें पद्य में हरिगीतिका छन्द के चरण हैं । इस छन्द के प्रत्येक चरण में 28 मात्रएँ होती हैं; 16-12 या 14-14 पर यति और अन्त में लघु-गुरु ।


(2)

।। प्रातःसायंकालीन सन्त-स्तुति ।।

सब सन्तन्ह की बड़ि बलिहारी ।
उनकी स्तुति केहि विधि कीजै ,
मोरी मति अति नीच अनाड़ी ।। सब ।।1।।
दुख-भंजन   भव-फंदन-गंजन ,
ज्ञान-ध्यान-निधि जग-उपकारी ।
विन्दु-ध्यान-विधि नाद-ध्यान-विधि ,
सरल-सरल जग में परचारी ।। सब ।।2।।
धनि ऋषि सन्तन्ह धन्य बुद्ध जी ,
शंकर  रामानन्द  धन्य  अघारी ।
धन्य हैं साहब सन्त कबीर जी ,   
धनि नानक गुरु महिमा भारी ।। सब ।।3।।
गोस्वामी श्री तुलसि दास जी ,
तुलसी साहब अति उपकारी ।
दादू  सुन्दर  सूर  श्वपच रवि ,     
जगजीवन पलटू भयहारी ।। सब ।।4।।
सतगुरु देवी अरु जे भये हैं,
होंगे सब चरणन शिर धारी ।
भजत है ‘मेँहीँ’ धन्य-धन्य कहि,   
गही सन्त-पद आशा सारी ।। सब ।।5।।


शब्दार्थ-बलिहारी (बलिहार+ई) = बलि होने का भाव, बलिदान, कुर्बानी, त्याग, महिमा, उपकार । (बलिहार=बलि होनेवाला, जनकल्याण के लिए कष्ट उठानेवाला, दूसरों की भलाई के लिए व्यक्तिगत सुखों तथा स्वार्थांे का त्याग करनेवाला ।) स्तुति=गुणगान । मति=बुद्धि । नीच=मलिन, अपवित्र, बुरा, ओछा । अनाड़ी=अज्ञानी, विचारहीन, मंद, जो तीव्र न हो । दुख-भंजन=दैहिक, दैविक और भौतिक-इन त्रय तापों को दूर करनेवाला । (भंजन=भंग करना, तोड़ना, नष्ट करना, तोड़नेवाला, नष्ट करनेवाला ।) भव=संसार, होना, जन्म, जन्म-मरण । फंदन=फंद, फंदा, जाल, बंधन, दुःख । भव-फंदन=संसार के बंधन-काम, क्रोध आदि षट् विकार, जन्म-मरणरूप बंधन, जन्म-मरण का दुःख । गंजन=नाश; यहाँ अर्थ है-नष्ट करनेवाला । ज्ञान-ध्यान-निधि=ज्ञान-ध्यान के भंडार, ज्ञान-ध्यान में पूर्ण । (निधि=खजाना, भंडार, समुद्र, घर, आधार ।) परचारी=प्रचार किया, प्रचार करनेवाला । धनि=धन्य, धनी, जिसके पास धन हो, जिसमें कोई गुण या विशेषता हो, ऐश्वर्यवान्, महिमावान्, स्वामी । (‘धनी’ एक आदर, श्रेष्ठता या विशेषता-सूचक शब्द है, जो महापुरुष के नाम के आगे जोड़ा जाता है; जैसे-धनी धर्मदासजी ।) सरल-सरल= सरलतापूर्वक, उदारतापूर्वक । धन्य=प्रशंसनीय, गुणगान करनेयोग्य । अघारी=अघारि (अघ+अरि), पापों के शत्रु, पापों का नाश करनेवाला । (अघ=पाप । अरि=शत्रु, नाश करनेवाला) साहब (अ )=स्वामी । गोस्वामी=जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो । (गो=इन्द्रिय, पृथ्वी, गाय आदि) भय=डर, अहित होने की संभावना से उत्पन्न दुःख । (भय कई प्रकार के होते हैं; जैसे-अपने मरने का भय, प्रिय व्यक्ति के मरने का भय, धन-नाश का भय, प्रतिष्ठा नष्ट हो जाने का भय, स्वास्थ्य-नाश का भय, मरने के बाद मनुष्य-योनि से भिन्न योनि में चले जाने का भय आदि ।) हारी=हरनेवाला, नष्ट करनेवाला । शिरधारी=शिर पर धारण करनेवाला, यहाँ अर्थ है, शिर पर धारण करनेयोग्य-आदर करनेयोग्य, पूजनेयोग्य, प्रणाम करनेयोग्य । भजत है=भजता है, भक्तिभाव से प्रणाम करता है, स्मरण करता है, नाम लेता है, गुणगान करता है, शरण लेता है, पूजा-आराधना करता है । गही=गहकर, ग्रहण करके, पकड़कर । पद=चरण । आसा सारी=सारी आशाओं के साथ, पूरी आशा और भरोसे के साथ, पूरे श्रद्धा-विश्वास के साथ, हृदय के समस्त भावों के साथ ।
भावार्थ-सभी संतों की बड़ी महिमा है अथवा जन-कल्याण के लिए सभी संतों का बड़ा त्याग रहा है । उनका गुणगान कैसे किया जाय-यह मैं नहीं जानता हूँ; क्योंकि मेरी बुद्धि अत्यन्त मलिन और जड़ है अथवा उनका गुणगान मैं किस प्रकार करूँ, मेरी बुद्धि तो अत्यन्त मलिन और जड़ (मंद, धीमी, विचार-हीन) है ।।1।। सभी सन्त दैहिक, दैविक और भौतिक-इन तीनों तरह के दुःखों को और जन्म-मरणरूप बंधनों को भी नष्ट करनेवाले हैं । ज्ञान-ध्यान में पूर्ण ये संत संसार के लोगों की भलाई करनेवाले और विन्दु-ध्यान तथा नाद-ध्यान की सरल और सच्ची विधियों का उदारतापूर्वक सब तरह के लोगों के बीच प्रचार करनेवाले हैं ।।2।। चाहे प्राचीन काल के ऋषि-मुनि हों अथवा बाद के सन्त-महात्मा-सभी बड़ी महिमावाले हैं । पापों के नाश करनेवाले भगवान् बुद्ध, श्रीमदाद्य शंकराचार्य और स्वामी रामानन्दजी सदा ही गुणगान करने के योग्य हैं । सन्त कबीर साहब और गुरु नानकदेवजी भी बड़े प्रशंसनीय हैं, जिनकी बहुत महिमा बतायी जाती है ।।3।। गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी, संत तुलसी साहब (हाथरसवाले), दादू दयालजी, सुन्दर दासजी, सूरदासजी, श्वपचजी, रविदासजी, जगजीवन साहब और पलटू साहब-ये सब संत भी बड़े उपकारी और सब प्रकार के भयों को दूर करनेवाले हैं ।।4।। सद्गुरु बाबा देवी साहब और अन्य संत भी जो हो गये हैं, विद्यमान हैं और आगे होनेवाले हैं, सबके चरण शिर पर        धारण करने के योग्य हैं अर्थात् सभी आदरणीय-पूजनीय हैं । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि मैं पूरी आशा और पूरे भरोसे के साथ (पूरे श्रद्धा-विश्वास के साथ) इन सभी सन्तों के चरणों की शरण होकर और इन्हें धन्य-धन्य कहते हुए भक्ति-भाव से इन्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ ।।5।।

टिप्पणी-1- सन्तमत में बुद्ध कलियुग के आदि-संत माने जाते हैं । इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था । इनका जन्म ईस्वी सन् से 550 वर्ष पूर्व वैशाख की पूर्णिमा को मायादेवी के गर्भ से नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी नामक स्थान में हुआ था । क्षत्रियवंशीय इनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के राजा थे । सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा नाम की एक सुन्दर कन्या से हुआ था । वृद्ध, रोगी, मृतक और संन्यासी को देखकर इन्हें वैराग्य हो गया । ये एक रात अपनी पत्नी और नवजात पुत्र राहुल को छोड़कर राजमहल से भाग निकले । घोर तपस्या के बाद इन्हें गया के एक पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई । इनका धर्म विदेशों में अधिक फैला । अस्सी वर्ष की आयु में इनका परिनिर्वाण कुशीनगर (गोरखपुर) में हुआ । इनका उपदेश था कि मनुष्य तृष्णा का त्याग करके दुःखों से छुटकारा पा सकता है । इनका प्रचारित धर्म ‘बौद्ध धर्म’ कहलाया । 2- अद्वैतवाद के प्रवर्त्तक आचार्य शंकर शैव थे । इनका जन्म विक्रमी संवत् 845 में केरल राज्य के कलादि नामक गाँव में हुआ था । इनकी माता विशिष्टा देवी और पिता शिवगुरु शिव के उपासक थे । कम ही उम्र में शंकराचार्य को अपनी मातृभाषा मलयालम और संस्कृत का भी ज्ञान हो गया था । आठ वर्ष की उम्र में इन्होंने चारो वेद पढ़ लिये । सोलह वर्ष की उम्र में पुस्तक भी लिखने लगे । कई उपनिषदों और गीता पर इनके भाष्य हैं । इनके गुरु का नाम आचार्य गोविन्द था । इन्होंने अपने समय में देश में चारों ओर फैले हुए जैन और बौद्ध मतों का खंडन करके अद्वैत मत स्थापित किया । माहिष्मती नगरी (महिषी गाँव, जिला सहरसा, बिहार) के मंडन मिश्र से हुआ इनका शाÐार्थ प्रसिद्ध है । इन्होंने देश में बहुत-से मठ बनवाये । 32 वर्ष की अल्प आयु में इनका देहान्त केदारनाथ में हुआ । 3- स्वामी रामानन्द वैष्णव आचार्य थे । इन्होंने उत्तरी भारत में भक्ति-साधना का प्रचार किया । इनका जन्म कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में वि- सं- 1356 में हुआ था; जन्म-स्थान प्रयाग बताया जाता है । रामानुज की शिष्य-परम्परा के श्रीराघवानन्दजी इनके गुरु थे । स्वामी रामानन्द की शिक्षा काशी में हुई थी और प्रायः यहीं वे रहा भी करते थे । इन्होंने जिस मत का प्रचार किया, वह ‘रामावत’ या ‘रामानन्दी सम्प्रदाय’ कहलाया, जिसमें भक्ति-योग का सम्यक् समन्वय हुआ है । इनके मत के साधु ‘वैरागी’ कहलाते हैं । इन्होंने हिन्दी और संस्कृत में रचना की है । जाति-व्यवस्था के ये पूरे विरोधी थे । संत कबीर, संत रैदास, संत पीपा आदि इनके शिष्य थे । इनका देहान्त 111 वर्ष की आयु में हुआ । 4- संत कबीर का जन्म काशी में विक्रम की 15वीं शताब्दी में हुआ था । कहते हैं, ये एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । लोक-निन्दा के भय से ब्राह्मणी ने इन्हें लहरतारा तालाब पर फेंक दिया था । नीरू नामक एक जुलाहे और उसकी पत्नी नीमा ने इनका पालन-पोषण किया । इनके गुरु स्वामी रामानन्दजी थे । कोई-कोई कहते हैं कि संत कबीर ने विवाह भी किया था; पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था । संत कबीर साहब कपड़ा बुनकर जीविका चलाते थे । ये निरक्षर थे, इसलिए इनके बनाये पद्य इनके साक्षर शिष्य लिपिबद्ध किया करते थे । इनकी मुख्य पुस्तक ‘बीजक’ है । इनकी भाषा को विद्वानों ने सधुन्नड्ढड़ी कहा है । 120 वर्ष की आयु में इनका देहान्त मगहर में वि  संवत् 1575 में हुआ । 5- गुरु नानकदेवजी का जन्म वि  सं  1526 के वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को तलवंडी नामक गाँव में हुआ था । यह गाँव लाहौर नगर से दक्षिण-पश्चिम लगभग 3 मील की दूरी पर अवस्थित है और अब ‘नानकाना’ कहलाता है । इनके पिता का नाम कालूचंद था, जो जाति के खत्री थे । माता का नाम तृप्ता था । चौदह वर्ष की उम्र में नानकदेवजी का विवाह हुआ था; दो पुत्र भी थे-श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द । नानकदेवजी को पंजाबी, हिन्दी, संस्कृत और फारसी की जानकारी थी । इनसे ‘सिख मत’ चला । इनकी परंपरा में नौ गुरु हुए । सभी गुरुओं ने ‘नानक’ नाम से पद्य-रचना की । गुरु नानकदेवजी ने गुरु अंगददेवजी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में इनकी रचनाएँ ‘महला 1’ के अन्तर्गत संकलित हैं । ‘जपुजी’ इनकी बड़ी प्रसिद्ध रचना है, जो ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ के आदि में है । वि  संवत् 1595 के आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इनका देहावसान करतारपुर में हुआ । 6- गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म सन् 1540 ई  के आस-पास उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था । कुछ विद्वान् इनका जन्म-स्थान सोरों (जिला एटा, उत्तर प्रदेश) मानते हैं । इनका बचपन का नाम रामबोला था । ये सरयूपारीण ब्राह्मण थे । इनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी था । भक्त नरहरिदासजी की देखरेख में गोस्वामीजी ने शिक्षा ग्रहण की थी । दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से इनका विवाह हुआ था । ये पत्नी के प्रति बहुत आसत्तफ़ रहा करते थे । इसी कारण पत्नी ने इन्हें कुछ दुर्वचन कहे, जिससे इन्हें वैराग्य हो गया । ये काशी में आकर रहने लगे । रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली, कृष्णगीतावली आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं । अवधी और व्रज भाषाओं में इन्होंने रचनाएँ की हैं । राम के प्रति इनकी भक्ति-भावना दास्य भाव की थी । इनका देहान्त 1623 ई0 में वाराणसी में असी घाट पर हुआ । 7- संत तुलसी साहब ‘साहबजी’ के भी नाम से जाने जाते थे । इनका आविर्भाव-काल विक्रमी संवत् 1817 बताया जाता है । ये हाथरस (जिला अलीगढ़) के किले की खाई में रहा करते थे । कुछ लोगों का कहना है कि ये दक्षिण भारत से हाथरस आये हुए थे । ‘घटरामायण’, ‘रत्नसागर’ और ‘शब्दावली’ इनकी रचनाएँ हैं । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने ‘घटरामायण’ के कुछ ही पद्यों को इनके द्वारा रचित माना है, अधिकांश पद्यों को उन्होंने क्षेपक माना है । संत तुलसी साहब ने कोई नया मत नहीं चलाया । ये सब संतों के मत को ही अपना मत मानते थे । इनका देहान्त विक्रम-संवत् 1900 में हुआ । हाथरस में इनका समाधि-मन्दिर विद्यमान है । इनके शिष्यों ने इनके नाम पर ‘साहिब-पंथ’ चलाया । 8- संत दादू दयालजी का जन्म वि  संवत् 1601 में गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद नगर में हुआ था । ये जाति के धुनिया थे । इनका भी विवाह हुआ था; पर सांसारिक बंधन में बँधे नहीं । बादशाह अकबर ने इनसे भेंट की थी । इनकी भी पद्य-रचना उपलब्ध है । इनका देहावसान राजस्थान प्रान्त के नराणा गाँव में वि  संवत् 1660 में हुआ, जहाँ इनके अनुयायियों-द्वारा स्थापित ‘दादू-द्वारा’ आज भी वर्त्तमान है । 9- संत सुन्दरदासजी (छोटे) का जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी द्यौसा नगर में वि  संवत् 1653 में माता सती के गर्भ से वैश्यकुल में हुआ था । इनके पिता का नाम कोई चोखा और कोई परमानन्द बतलाते हैं । काशी में रहकर संत सुन्दरदासजी ने 14 वर्षों तक शाÐों का गहन अध्ययन किया था । संत दादू दयालजी इनके गुरु थे । रज्जबजी और जगजीवन साहब इनके गुरुभाई थे । ‘ज्ञान-समुद्र’ और ‘सुन्दर-विलास’ इनके दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं । संतों में ये सबसे अधिक पढ़े-लिखे कहे जाते हैं । इनका देहावसान सं  1746 वि  में 93 वर्ष की आयु में साँगानेर में हुआ । 10- भक्त सूरदासजी का जन्म सारस्वत ब्राह्मण-कुल में 1478 ई  के लगभग दिल्ली के समीप सीही नामक गाँव में हुआ था । कुछ लोग इनका जन्म-स्थान मथुरा- आगरा-सड़क पर स्थित रुनकता नामक गाँव बतलाते हैं । इनके पिता का नाम रामदास था । सूरदासजी जन्मांध बताये जाते हैं । महाप्रभु वल्लभाचार्यजी को इन्होंने अपना गुरु बनाया था । सख्य भाव से इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति की । सूरसागर, सूरसारावली और साहित्यलहरी इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं । व्रजभाषा में इन्होंने रचनाएँ की हैं । श्रीकृष्ण की बाल-लीला का इनके द्वारा किया गया वर्णन विश्वसाहित्य में अद्वितीय है । इनका देहान्त सन् 1583 ई  में माना जाता है ।  गो  तुलसीदासजी और सूरदासजी को हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने सगुणभक्तों की कोटि में रखा है, निर्गुण भक्तों (=संतों) की कोटि में नहीं; परन्तु सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ने इनके ही कुछ पद्यों के आधार पर इन्हें भक्ति की पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ सन्त माना है । यह सच है कि इन दोनों संतों ने सगुण ब्रह्म के चरित का ही विशेष वर्णन किया है; परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इनकी गति निर्गुण ब्रह्म तक नहीं थी । 11- काशी-निवासी भक्त श्वपच का असली नाम सुदर्शन या वाल्मीकि बताया जाता है । ये जाति के श्वपच (डोम) थे, इसीलिए लोग इन्हें ‘भक्त श्वपच’ भी कहकर पुकारते हैं । ये वे ही संत हैं, जिनको युधिष्ठिरजी के अश्वमेध यज्ञ में आदर- पूर्वक बुलवाकर भोजन कराया गया, तब घंटा बजा, जो यज्ञ के पूर्ण होने का सूचक था । डोम जाति में एक और प्रसिद्ध भक्त हुए हैं-नाभदासजी, जो वैष्णव और ‘भक्तमाल’ के लेखक थे। 12- संत रैदासजी का समय विक्रम की 15-16वीं शताब्दी माना जाता है । ये जाति के चमार थे और इनके परिवार के लोग काशी के आस-पास ढोरों के ढोने का रोजगार करते थे । ये भी काशी में रहकर जूते बनाकर बेचने का काम करते थे । स्वामी रामानन्द इनके गुरु थे; पिता का नाम रग्घू और माता का नाम घुरबिनिया बताया जाता है । रैदासजी गृहस्थाश्रम में विरक्त भाव से रहे । मेवाड़ की झाला रानी ने इनकी शिष्यता ग्रहण की थी । मीराबाई ने भी इन्हें गुरु-रूप में याद किया है । इनके पद्यों का संग्रह ‘रैदास की बानी’ नाम से बेलवीडियर प्रिन्टिग वर्क्स, इलाहाबाद से छपा है । 13- संत जगजीवन साहब (द्वितीय) का जन्म बाराबंकी जिले के सरदहा नामक गाँव में एक चंदेल क्षत्रिय-कुल में हुआ था; जन्म-वर्ष 1727 वि  सं  बताया जाता है । इनका विवाह हुआ था । ये सरदहा छोड़कर कोटवा में रहने लगे थे, जो सरदहा से 2 कोस की दूरी पर है । इनके गुरु बुल्ला साहब थे । जगजीवन साहब से ‘सत्तनामी सम्प्रदाय’ चला । इनका देहान्त सं  1818 वि  में कोटवा में हुआ । इनकी वाणियों का संकलन दो भागों में बेलवीडियर प्रिन्टिग वर्क्स, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है । 14- संत पलटू साहब विक्रम की 19वीं सदी में विद्यमान थे । इनका जन्म फैजाबाद जिले के नगपुर जलालपुर में काँदू बनिया-कुल में हुआ था । इन्होंने संत भीखा साहब के शिष्य गोविन्द साहब को अपना गुरु बनाया था । ये अयोध्या में रहा करते थे । इनकी रचनाओं में कुंडलियाँ अधिक प्रसिद्ध हैं । 15- बाबा देवी साहब सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के गुरु थे, जो मुरादाबाद के अताई महल्ले में रहा करते थे और वहीं से इधर-उधर सत्संग-प्रचारार्थ भी जाया करते थे । इनका जन्म सन् 1841 ई  के मार्च महीने में किसी दिन हुआ था । इनके पिता मुंशी महेश्वरीलालजी हाथरस (जिला अलीगढ़) में कानूनगोई करते थे । मुंशीजी की संतान मर जाया करती थी । बाबा देवी साहब-जैसे पुत्ररत्न की प्राप्ति मुंशीजी को संत तुलसी साहब के आशीर्वाद से हुई थी । तुलसी साहब ने बाबा देवी साहब को इनकी बाल्यावस्था में मस्तक पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया था । बाबा देवी साहब ने विवाह नहीं किया था । राधास्वामीमत के दूसरे आचार्य रायबहादुर शालिग्राम से इनका संपर्क था । 1880 ई  में ये मुरादाबाद आकर रहने लगे । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का कथन है कि  श्श् बाबा देवी साहब ने न तो संत तुलसी साहब से दीक्षा ली थी और न वे तुलसी साहब के मत के आचार्य ही थे । बाबा देवी साहब का शब्दयोग-संबंधी विचार तुलसी साहब के शब्दयोग-संबंधी विचार से मेल नहीं खाता है ।य् (देखें, भावार्थ-सहित घटरामायण-पदावली, पृ  38) बाबा साहब ने तुलसी साहब की ‘घटरामायण’ छपवायी थी । उसमें इनकी लिखी हुई भूमिका है । इन्होंने ‘रामचरितमानस’ के बालकांड के आदि-भाग तथा उत्तरकांड के अन्तिम भाग की टीका ‘बाल का आदि और उत्तर का अन्त’ नाम से की थी । इन्होंने कोई नया मत नहीं चलाया । ये भी सन्तमत का ही प्रचार करते थे । 19 जनवरी, 1919 ई0, रविवार को इनका देहान्त मुरादाबाद में हुआ । 16- ‘उनकी स्तुति केहि विधि कीजै’ में आये ‘स्तुति’ का उच्चारण गायन के समय ‘अस्तुति’ की तरह करना होगा, तभी पंक्ति की मात्रएँ पूरी होंगी और तभी पंक्ति में प्रवाह भी आ पाएगा। ‘रामचरितमानस’ के अरण्यकांड में भी ‘स्तुति’ के अर्थ में ‘अस्तुति’ शब्द का प्रयोग हुआ है; देखें-केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी।।’’ 17- दूसरे पद्य के प्रत्येक चरण में  32 मात्रएँ हैं; 16-16 पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण । यह मात्रिक सवैया का चरण है ।

(3)

।। प्रातःकालीन गुरु-स्तुति ।।

मंगल  मूरति  सतगुरू, मिलवैं  सर्वाधार ।
मंगलमय  मंगल करण, विनवौं  बारम्बार ।। 1।।
ज्ञान-उदधि अरु ज्ञान-घन, सतगुरु शंकर रूप ।
नमो-नमो बहु बार हीं, सकल सुपूज्यन भूप ।। 2।।
सकल भूल नाशक प्रभू, सतगुरु परम कृपाल ।
नमो कंज-पद युग पकड़ि, सुनु प्रभु नजर निहाल ।। 3।।
दया-दृि" करि नाशिये, मेरो भूल अरु चूक ।
खरो तीक्ष्ण बुधि मोरि ना, पाणि जोड़ि कहुँ कूक ।। 4।।
नमो गुरू सतगुरु नमो, नमो नमो गुरुदेव ।
नमो विघ्न हरता गुरू, निर्मल जाको भेव ।। 5।।
ब्रह्म-रूप सतगुरु नमो, प्रभु सर्वेश्वर रूप ।
राम दिवाकर रूप गुरु, नाशक भ्रम-तम-कूप ।। 6।।
नमो सुसाहब सतगुरू, विघ्न विनाशक द्याल ।
सुबुधि विगासक ज्ञानप्रद, नाशक भ्रम-तम-जाल ।। 7।।
नमो-नमो सतगुरु नमो, जा  सम कोउ न आन ।
परम पुरुष हू तें अधिक, गावें सन्त सुजान ।। 8।।
शब्दार्थ-मंगल=कल्याण, अच्छाई, भलाई, आनन्द, मनोहर, सुहावना, सुन्दर । मूरति= मूर्त्ति, रूप, रूपवाला, व्यक्त पुरुष । मिलवैं=मिलावैं, मिलाते हैं, प्राप्त कराते हैं । सर्वाधार (सर्व+आधार)=सबका आधार । मंगलमय=कल्याण से भरा हुआ, आनन्द से भरा हुआ, शुभ गुणों से परिपूर्ण । मंगल करण=कल्याण करनेवाला, आनन्द देनेवाला । विनवौं=विनती (प्रार्थना) करता हूँ, गुणगान करता हूँ । ज्ञान-उदधि=ज्ञान के समुद्र, अपार ज्ञानवाले, ज्ञान के भंडार । घन=ठोस, पूर्ण, गंभीर, बड़ा, बादल । ज्ञान-घन=पूर्ण ज्ञानवाले, ठोस ज्ञानवाले, गंभीर ज्ञानवाले, ज्ञान के भंडार, ज्ञान के बादल, ज्ञान-रूपी जल की वर्षा करनेवाले । (गो  तुलसीदासजी ने भी हनुमान्जी की वन्दना करते हुए उन्हें ‘ज्ञानघन’ कहा है; देखें- श्श् प्रनवौं पवनकुमार, खल वन पावक ज्ञानघन ।य्-मानस, बालकांड।) शंकर (शम्+कर)=कल्याण करनेवाला । शंकररूप= कल्याणकारी रूप, कल्याणकारी मूर्त्ति, भगवान् शंकर की तरह भक्ति से शीघ्र प्रसन्न हो जानेवाले । (रामचरितमानस, बालकांड के आदि में भी गुरु की वंदना करते हुए उन्हें शंकररूप बताया गया है; यथा- श्श् वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम् ।य्) सुपूज्यन भूप=विशेष रूप से पूजे जानेयोग्य (आदर करनेयोग्य) व्यक्तियों में जो श्रेष्ठ हो । (सुपूज्य=सबसे अधिक पूजनीय । भूप=राजा, श्रेष्ठ । माता-पिता और अन्य गुरु जन भी आदरणीय हैं; परन्तु संत सद्गुरु सबसे अधिक आदरणीय हैं; क्योंकि उनसे बढ़कर और कोई उपकारी नहीं हो सकते ।) नमो=नमः, नमस्कार, प्रणाम । कंज (कम्+ज)=जो जल में उत्पन्न हुआ हो; यहाँ अर्थ है-कमल । पद=चरण । युग=दोनों । नजर निहाल (अरबी-फारसी)=दृष्टि डालकर सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देनेवाला या खुशहाल कर देनेवाला । सकल=सब । परम=अत्यन्त । भूल-चूक=असावधानी, आलस्य, और अज्ञानतावश होनेवाली गलतियाँ, दोष, कसूर, अपराध । (कुछ गलतियाँ आदत, आवश्यकता, लज्जा-संकोच और षट् विकारवश भी होती हैं ।) खरो=खरा, अच्छा, सुन्दर, शुद्ध, पवित्र; देखें- श्श् यह दुुविधा पारस नहि जानत, कंचन करत खरो ।य् (भक्त सूरदासजी) ना=न, नहीं । पाणि=हाथ । कूक=कूककर, दुःखी स्वर में चिल्लाकर या पुकारकर; देखें- श्श् केसो कहि-कहि कूकिए, ना सोइयै असरार । रात दिवस के कूकणैं, कबहूँ लगै पुकार ।।य् (संत कबीर साहब) विघ्न=बाधा, उलझन, आफत । भेव=भेद, ज्ञान, युक्ति, रहस्य; देखें- श्श् विधि औ हरि हर पावत नाहीं, बिना गुरू प्रभु भेव जी ।य् (92वाँ पद्य) ब्रह्मरूप=श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु-रूपी । (श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु ब्रह्म का छोटे-से-छोटा सगुण साकार रूप है ।) राम दिवाकर=सूर्यब्रह्म । (राम=ब्रह्म । दिवाकर=सूर्य । त्रिकुटी में दिखाई पड़नेवाला सूर्यब्रह्म और गुरु का अत्यन्त तेजोमय सूक्ष्म सगुण साकार रूप है । पदावली के 88वें पद्य में इसे ब्रह्मदिवाकर कहकर गुरु का रूप बताया गया है; देखें- श्श् जहाँ ब्रह्म दिवाकर रूप गुरू धर, करैं परम परकाश रे ।य्) भ्रम तम कूप=सूखे गहरे कुएँ के समान दुःख देनेवाला अज्ञान-अंधकार । (किसी चीज के बारे में कुछ नहीं जानना अज्ञानता है; परन्तु किसी चीज को कुछ दूसरी ही चीज समझ लेना भ्रम है; जैसे रस्सी को साँप समझ लेना । भ्रम का कारण अज्ञानता ही है ।) सु=सुन्दर, श्रेष्ठ । साहब (अरबी)=स्वामी । सुबुधि=सुन्दर बुद्धि, अच्छी बुद्धि, सात्त्विकी बुद्धि, अच्छा ज्ञान । विगासक=विकासक, विकास करनेवाला, बढ़ानेवाला । द्याल=दयाल, दयालु । ज्ञान-प्रद=ज्ञान प्रदान करनेवाला । भ्रम तम जाल=बंधन-रूप अज्ञान-अंधकार । आन=अन्य, दूसरा । परम पुरुषहू तें=परम पुरुष (परमात्मा) से भी । सुजान=सुन्दर (अच्छे) ज्ञानवाले ।
भावार्थ-अत्यन्त सुहावने रूपवाले सद्गुरु सबके आधार-रूप परमात्मा से मिलाते हैं । वे कल्याण (अच्छाई, भलपन) से भरे हुए और भक्तों के कल्याण करनेवाले हैं । मैं बारंबार उनका गुणगान करते हुए उनसे विनती करता हूँ ।।1।। वे ज्ञान के भंडार तथा ठोस ज्ञानवाले या ज्ञान के बादल और कल्याणकारी पुरुष हैं अथवा भगवान् शंकर की तरह भक्ति से शीघ्र प्रसन्न हो जानेवाले हैं । मैं उनको बारंबार प्रणाम करता हूँ; क्योंकि वे अवश्य पूजे जानेयोग्य (आदर किये जानेयोग्य) सभी व्यक्तियों में श्रेष्ठ हैं ।।2।। हे स्वामी सद्गुरु ! आप भक्तों पर अत्यन्त कृपा करनेवाले और उनसे होनेवाली सब प्रकार की गलतियों को दूर कर देनेवाले हैं । मैं आपके दोनों चरणकमल पकड़कर आपको प्रणाम करता हूँ ! मात्र दृष्टि डालकर भक्तों की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर डालनेवाले हे स्वामी ! आप मेरी प्रार्थना सुनिये ।।3।। मैं अपने दोनों हाथों को जोड़कर और अत्यन्त दुःख-भरे स्वर में पुकारकर आपसे प्रार्थना करता हूँ कि बुद्धि के अच्छी और तेज न रहने के कारण मुझसे जो भूल-चूक हुआ करती है, उसे आप मेरी ओर दया की दृष्टि डालकर मिटा दीजिए ।।4।। तेजस्वी रूप और अलौकिक गुणोंवाले तथा भक्तों के जीवन में आनेवाली बाधाओं को हर लेनेवाले उन सच्चे गुरु को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ, जिनका भेद (ज्ञान, युक्ति) हृदय को पवित्र कर देनेवाला है ।।5।। ब्रह्मरूपी (छोटे-से-छोटे श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु-रूपी), अनादि-अनन्त परमात्मस्वरूपी और त्रिकुटी में दर्शित होनेवाले सूर्यब्रह्मरूपी उन सद्गुरु को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ, जो अत्यन्त दुःखदायी अज्ञान-अंधकार को विनष्ट कर डालनेवाले हैं ।।6।। बाधाओं को नष्ट कर डालनेवाले, अत्यन्त दयालु और सर्वश्रेष्ठ स्वामी सद्गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ, जो भक्तों की सुबुद्धि (सद्ज्ञान) को बढ़ानेवाले, लौकिक-पारलौकिक ज्ञान देनेवाले और बंधनरूप अज्ञान-अंधकार को विनष्ट कर डालनेवाले हैं ।।7।। उन सद्गुरु को बारंबार नमस्कार है, जिनके समान दूसरा कोई भी नहीं है । वे परम पुरुष (परमात्मा) से भी अधिक महिमावाले हैं, ऐसा अच्छे ज्ञानवाले सन्त जन उनकी प्रशंसा में प्रेमपूर्वक गाते हैं ।।8।।
टिप्पणी-1- आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़नेवाला श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु ब्रह्म (परम प्रभु परमात्मा) का छोटे-से-छोटा सगुण साकार रूप माना जाता है; देखें- श्श् लखत-लखत छवि विन्दु प्रभू की, ज्योति मंडल धँसि धाई हो ।य् (33वाँ पद्य)  श्श् अणुहू से अणु रूप ब्रह्म संग, सहजहि सुरत मिलाई ।।य् (66वाँ पद्य)  श्श् बाँका परदा खोलिके, सन्मुख ले दीदार । बाल सनेही साइयाँ, आदि अन्त का यार ।।य् (संत कबीर साहब)  श्श् नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास । अविनाशी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति परकाश ।।य् (सूरदासजी) 2- ‘ज्ञान-उदधि’ से बताया गया है कि संत सद्गुरु ज्ञान के भंडार हैं और ‘ज्ञान-घन’ (ज्ञान के बादल) से सूचित किया गया है कि वे बादल की तरह घूम-घूमकर संसार में ज्ञानरूपी जल की वर्षा करते हैं ।  3- तीसरे पद्य में ‘सतगुरु’, ‘गुरु’ और ‘गुरुदेव’ शब्द शरीरधारी आध्यात्मिक गुरु के लिए प्रयुक्त किये गये हैं। एक ही पंक्ति में ‘गुरु’, ‘सतगुरु’ और ‘गुरुदेव’ शब्द चरण-पूर्त्ति के लिए रख दिये गये हैं ।


(4)

।। छप्पय ।।

जय जय परम प्रचण्ड, तेज तम-मोह विनाशन ।
जय जय तारण तरण, करन जन शुद्ध बुद्ध सन ।।
जय जय बोध महान, आन कोउ सरवर नाहीं ।
सुर नर लोकन माहि, परम कीरति सब ठाहीं ।।
सतगुरु परम उदार हैं, सकल जयति जय जय करें ।
तम अज्ञान महान् अरु, भूल-चूक-भ्रम मम हरें ।। 1।।
जय जय ज्ञान अखण्ड, सूर्य भव-तिमिर विनाशन ।
जय जय जय सुख रूप, सकल भव त्रस हरासन ।।
जय जय संसृति रोग सोग, को वैद्य श्रे"तर ।
जय जय परम कृपाल, सकल अज्ञान चूक हर ।।
जय जय सतगुरु परम गुरु, अमित-अमित परणाम मैं ।
नित्य करूँ सुमिरत रहूँ, प्रेम सहित गुरुनाम मैं ।। 2।।
जयति भत्तिफ़-भण्डार, ध्यान अरु ज्ञान निकेतन ।
योग बतावनिहार, सरल जय जय अति चेतन ।।
करनहार बुधि तीव्र, जयति जय जय गुरु पूरे ।
जय-जय गुरु महाराज, उत्तिफ़ दाता अति रूरे ।।
जयति-जयति श्री सतगुरू, जोड़ि पाणि युग पद धरौं ।
चूक से रक्षा कीजिये, बार-बार विनती करौं ।। 3।।
भत्तिफ़ योग अरु ध्यान को, भेद बतावनिहारे ।
श्रवण मनन निदिध्यास, सकल दरसावनिहारे ।।
सतसंगति अरु सूक्ष्म वारता, देहि बताई ।
अकपट परमोदार न कछु, गुरु धरें छिपाई ।।
जय जय जय सतगुरु सुखद, ज्ञान सम्पूरण अंग सम ।
कृपा दृष्टि  करि हेरिये, हरिय युत्तिफ़ बेढंग मम ।। 4।।


शब्दार्थ-जय=जय हो, विजय हो, यश फैले । परम=अत्यन्त, अत्यधिक, सबसे बढ़ा-चढ़ा । प्रचंड=बहुत अधिक, तीव्र, प्रखर, तेज, उग्र, तीक्ष्ण । तेज=प्रकाश । तम-मोह=अज्ञान-अंधकार । (तम=अंधकार । मोह=अज्ञानता ।) विनाशन=विनाश करना; यहाँ अर्थ है विनाश करनेवाला । तारण=तारनेवाला, पार करनेवाला, उद्धार करनेवाला । तरण=जो तर गया हो, जो पार हो गया हो, जो उद्धार पा गया हो । (रामचरितमानस, उत्तरकांड में ‘तारन तरन’ का प्रयोग देखें- श्श् तारन तरन हरन सब दूषन । तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ।।य् पदावली के 15वें पद्य में भी सद्गुरु के लिए ‘तरण-तारण’ शब्दावली का प्रयोग किया गया है; देखें-‘तरण तारणंऽहं बिना तन विहारी ।’ कहीं-कहीं सन्तों ने तारण और तरण-दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग ‘उद्धार करनेवाला’ के अर्थ में भी किया है ।) करण=करना; यहाँ अर्थ है करनेवाला । जन=भक्त । शुद्ध=पवित्र । बुद्ध=जो जगा हुआ हो, जिसको बोध (ज्ञान) हो गया हो, ज्ञानी, ज्ञानवान् । सन=से, साथ, समान, सन् (संस्कृत), भली भाँति, बहुत, होते हुए। अवधी भाषा में ‘सन’ का प्रयोग ‘से’ के स्थान पर होता है; जैसे- श्श् जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम सन सहज सनेह ।य् (रामचरितमानस, अयोध्याकांड) संभव है, यहाँ ‘सन’ का प्रयोग निरर्थक रूप में मात्र ‘विनाशन’ के साथ्ा तुक मिलाने की दृष्टि से किया गया हो ।,ह् बोध महान=जिसको बहुत ज्ञान हो, बड़ा ज्ञानवान्, महाज्ञानी । आन=अन्य, दूसरा । सरवर=सरवरि, सदृश, समान, बराबरी, तुलना, सर्वश्रेष्ठ, प्रतिष्ठित । (फारसी भाषा में ‘सरवर’ का अर्थ सर्वश्रेष्ठ होता है और ‘सरबर’ का अर्थ प्रतिष्ठित ।) कीरति=कीर्त्ति, यश, सद्गुणों की चर्चा । सब ठाहीं=सब ही जगह । सतगुरु=सच्चा गुरु । उदार=दानी, खुले दिलवाला । जयति=जय हो । सकल=सब । भूल-चूक=गलती, दोष, अपराध, कसूर । भ्रम=मिथ्या ज्ञान । मम=मेरा । ज्ञान अखंड=जिसका ज्ञान कभी खंडित नहीं होता हो, जिसका ज्ञान सदा एक-जैसा बना रहता हो । (सामान्य लोगों का ज्ञान-विवेक सत्संगति-कुसंगति में बढ़ता-घटता रहता है; परन्तु आत्मज्ञ महापुरुषों का ज्ञान-विवेक कभी भी खंडित नहीं होता । रामचरितमानस, उत्तरकांड में भी श्रीराम के लिए ‘ज्ञान अखंड’ विशेषण का प्रयोग किया गया है; देखें- श्श् ग्यान अखंड एक सीतावर । मायाबस्य जीव सचराचर ।।य्) हरें=हरण करते हैं, नष्ट करते हैं । भव तिमिर=संसार का अज्ञान-अंधकार । (तिमिर=अंधकार) सुखरूप=जो सच्चे सुख का स्वरूप हो, जो सदा सहज सुख में रहता हो, जिसका रूप बड़ा सुहावना हो, जो सुख का कारण हो । त्रस=भय । हरासन=”ास करनेवाला, घटानेवाला, क्षय करनेवाला, नष्ट करनेवाला । संसृति=संसार, जन्म-मरण । सोग=शोक, चिन्ता, दुःख । श्रेष्ठतर=जो किसी की अपेक्षा अथवा किसी से श्रेष्ठ हो । परम गुरु=सबसे बढ़ा-चढ़ा गुरु, जो सबका गुरु हो, परमात्मा । (परमात्मा ने सृष्टि के आरंभिक काल में ऋषियों के हृदय में ज्ञान दिया । उस ज्ञान को ऋषियों ने लोगों में प्रचारित किया । इसीलिए परमात्मा आदिगुरु और सबका गुरु या परम गुरु कहा जाता है ।) अमित=अपरिमित, असीम, अनन्त, असंख्य, बहुत अधिक । नित्य=प्रतिदिन । सुमिरत रहूँ=सुमिरन या जप करता रहूँ । भक्ति=भक्ति भाव, प्रेमपूर्ण सेवा भाव । (सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज की दृष्टि में, शरीर के अन्दर आवरणों से छूटते हुए परमात्मा से मिलने के लिए चलना परमात्मा की निज भक्ति है ।) निकेतन=घर, खजाना, भंडार । योग=ईश्वर-प्राप्ति की युक्ति । (महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है । चित्तवृत्ति का पूर्ण निरोध असली समाधि में होता है ।) अति चेतन=अत्यन्त ज्ञानवान्, अत्यन्त जगा हुआ । (जो तुरीयातीतावस्था को प्राप्त कर लेता है, वही पूरा जगा हुआ कहा जाता है ।) उक्ति=कथन, उपदेश । रूरे=श्रेष्ठ, उत्तम, सुन्दर, अच्छा; देखें- श्श् भरहि निरन्तर होहि न पूरे । तिन्हके हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ।। (रामचरितमानस, अयोध्याकांड) श्रवण=सुनना, कान, यहाँ अर्थ है-श्रवण ज्ञान, जो ज्ञान किसी से सुनकर अथवा कोई पुस्तक पढ़कर प्राप्त किया गया हो । मनन=सोचना-विचारना, यहाँ अर्थ है-मनन ज्ञान, वह श्रवण ज्ञान जो बारंबार विचार किये जाने पर सत्य जँच गया हो । निदिध्यास=निदिध्यासन, मनन ज्ञान को व्यवहार में उतारना, मनन किये हुए विषय को प्रत्यक्ष करने के लिए बारंबार उचित प्रयत्न करना, मनन किये हुए विषय का पुनः-पुनः चिन्तन-स्मरण या ध्यान करना । सूक्ष्म वारता=गंभीर वार्त्ता (बात), अध्यात्म-ज्ञान की गंभीर बात । अकपट= कपट-रहित, छल-रहित, जो दुराव-छिपाव नहीं करता हो, सच्चा, सरल । परमोदार (परम+उदार)=अत्यन्त खुले दिलवाला । अंग=अवयव, प्रकार, भेद । सम=समान, स्वरूप, पूर्ण । हेरिये=देखिए । हरिय=हरण कीजिए, नष्ट कीजिए । युक्ति=विचार । बेढंग=बेढंगा, बेतुका, अनुचित, असंगत ।

भावार्थ-अज्ञान-अंधकार को नष्ट कर डालनेवाले अत्यन्त तेज प्रकाशरूप (सूर्यब्रह्म-रूप) उन सद्गुरु की बारंबार जय हो, जो संसार-सागर से उद्धार पाये हुए, दूसरों का उद्धार करनेवाले और अपनी युक्ति बताकर भक्तों को पवित्र, साथ-ही-साथ ज्ञानवान् भी बनानेवाले हैं । उन सद्गुरु की बारंबार जय हो, जो बड़े ज्ञानी हैं, जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है और जिनकी नरलोक, देवलोक आदि सभी स्थानों (लोकों) में अत्यन्त कीर्त्ति छायी हुई है । जो अत्यन्त खुले दिलवाले हैं और जिनकी सभी बारंबार जय-ध्वनि करते हैं, वे सद्गुरु मेरे बड़े अज्ञान-अंधकार, भूल-चूक और मिथ्या ज्ञान को दूर करें ।।1।। अखंड ज्ञानवाले उन सद्गुरु की बारंबार जय हो, जो संसार के अज्ञान-अंधकार को विनष्ट करने के लिए सूर्यरूप हैं, जो सच्चे सुख के स्वरूप हैं और जो भक्तों के सभी तरह के सांसारिक भयों को अथवा जन्म-मरण के दुःखों को दूर करनेवाले हैं । जो संसार में होनेवाले शारीरिक-मानसिक रोगों और दैविक-भौतिक दुःखों के सबसे बड़े वैद्य, अत्यन्त कृपालु, सभी अज्ञान-गलतियों को हर लेनेवाले और परम गुरु (परमात्मा) के समान हैं अथवा सभी पूज्य लोगों में श्रेष्ठ हैं, उन संत सद्गुरु की बारंबार जय हो ! मैं प्रतिदिन उन्हें असंख्य बार प्रणाम करता रहूँ और प्रेम-सहित गुरु नाम (‘गुरु’ शब्द अथवा गुरु-प्रदत्त मंत्र) का सुमिरन करता रहूँ ।।2।। जो सद्गुरु भक्ति की खानि, ध्यान और ज्ञान के भंडार, योगाभ्यास की विधि बतानेवाले, सरल और अत्यन्त सावधान (सचेत, ज्ञानवान्) हैं, उनकी बारंबार जय हो ! भक्तों की बुद्धि को तेज बनानेवाले उन पहुँचे हुए गुरु महाराज की जय हो, जो अत्यन्त सुन्दर उपदेश देनेवाले हैं अथवा जो ज्ञानोपदेश करने में अत्यन्त कुशल हैं । हे सद्गुरु ! आपकी बारंबार जय हो ! मैं दोनों हाथों को जोड़ते हुए अर्थात् प्रणाम करते हुए आपके चरणों में अपना सिर रखता हूँ और बारंबार यही विनती करता हूँ कि मुझसे होनेवाली गलतियों से मेरी रक्षा कीजिए ।।3।। सद्गुरु भक्ति, योग और ध्यानाभ्यास की गंभीर बातों को अथवा युक्तियों को बतानेवाले और श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा अनुभव-ज्ञान के इन चारो अंगों का प्रत्यक्षीकरण करानेवाले हैं अर्थात् ज्ञान के इन चारो अंगों में पूर्ण करानेवाले हैं । वे सत्संग के अर्थ, प्रकार और महिमा को तथा अध्यात्म-ज्ञान की गूढ़ बातों को भी बता देते हैं । वे कपट-रहित और परम उदार हैं, हृदय में कुछ भी छिपाकर नहीं रखते हैं । सुख देनेवाले और श्रवण, मनन, निदिध्यासन, अनुभव-ज्ञान के इन सभी अंगों के स्वरूप अर्थात् ज्ञान के इन सभी अंगों में पूर्ण सन्त सद्गुरु की बारंबार जय हो ! हे सद्गुरु ! मेरी ओर आप कृपा की दृष्टि डालकर देखिये और मेरे सभी बेढंगे विचारों को दूर कर दीजिये ।।4।।

टिप्पणी-1- सद्गुरु का अत्यन्त प्रकाशमान रूप त्रिकुटी में दर्शित होनेवाला सूर्यब्रह्म है । पदावली में अन्यत्र भी इस सूर्यब्रह्म को अत्यन्त प्रकाशमान बताया गया है; देखें- श्श् अपनी किरण का सहारा गहाकर, परम तेजोमय रूप अपना दिखाना ।य् (20वाँ पद्य),  श्श् जहाँ ब्रह्म दिवाकर, रूप गुरू धर, करें परम परकाश रे ।य् (88वाँ पद्य)। 2- चौथे पद्य को छप्पय छन्द में बाँधा गया है । रोला के चार चरणों के नीचे उल्लाला के चार चरणों को दो पंक्तियों में रख देने से छप्पय छन्द बन जाता है । रोला के प्रत्येक चरण में 24 मात्रएँ होती हैं, 11-13 पर यति और अन्त दो गुरु या दो लघु । चौथे पद्य में सममात्रिक उल्लाला का प्रयोग हुआ है। सममात्रिक उल्लाला के प्रत्येक चरण में 13 मात्रएँ होती हैं ।

(5)

।। प्रातःकालीन नाम-संकीर्त्तन ।।

अव्यक्त अनादि अनन्त अजय, अज आदि मूल परमातम जो ।
ध्वनि प्रथम स्फुटित परा धारा, जिनसे कहिये स्फोट है सो ।। 1।।
है स्फोट वही उद्गीथ वही, ब्रह्मनाद शब्दब्रह्म ओ3म् वही ।
अति मधुर प्रणव-ध्वनि धार वही, है  परमातम  प्रतीक  वही ।। 2।।
प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम वही, है सार शब्द सत्शब्द वही ।
है  सत्  चेतन  अव्यत्तफ़  वही, व्यत्तफ़ों में व्यापक नाम वही ।। 3।।
है सर्वव्यापिनि ध्वनि राम वही, सर्व-कर्षक हरि कृष्ण नाम वही ।
है परम प्रचण्डिनि शत्तिफ़ वही, है शिव शंकर हर नाम वही ।। 4।।
पुनि रामनाम है अगुण वही, है अकथ अगम पूर्णकाम वही ।
स्वर-व्यंजन-रहित अघोष वही, चेतन ध्वनि-सिन्धु अदोष वही ।। 5।।
है एक ओ3म् सत्नाम वही, ऋषि-सेवित प्रभु का नाम वही ।
×     ×   × × मुनि-सेवित गुरु का नाम वही ।
भजो  ॐ ॐ  प्रभु  नाम  यही,  भजो ॐ ॐ ‘मेँहीँ’ नाम यही ।। 6।।

शब्दार्थ-अव्यक्त (अ+व्यक्त)=जो व्यक्त नहीं है, जो प्रत्यक्ष नहीं है, जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आ पाए, परम अव्यक्त-परमात्मा । अनादि (अन्+आदि)= आदि-रहित, आरंभ-रहित, आदि-मध्य-अन्त-रहित, अपूर्व, जिसके पहले दूसरा कोई तत्त्व नहीं हो, जिसका कहीं आरंभ नहीं हो, उत्पत्ति-रहित । (देश-काल से परे परमात्मा के पूर्व परमात्मा से भिन्न दूसरा कुछ नहीं था ।) अनन्त (न+अंत=अन्+अन्त)=अन्त-रहित, जिसका कहीं अन्त नहीं हो, जो आदि-मध्य और अन्त-रहित हो, जिसका कभी अन्त (विनाश) नहीं होता हो । अजय=अजेय, जो किसी से भी जीता न जा सके, जो किसी के भी द्वारा शासित न हो सके; भाव यह कि जो अपरंपार शक्ति-युक्त है । अज (अ+ज)=अजन्मा, जन्म-रहित, जो किसी से जनमा हुआ (उत्पन्न) नहीं हो, जो कभी जन्म नहीं लेता । आदि=आरंभ, आदितत्त्व, जो सभी उत्पत्तिशील पदार्थों या सृष्टि के पहले से विद्यमान हो । मूल=जड़, जो सबकी जड़ हो, जो सबका आधार हो, जो सबकी उत्पत्ति का परम कारण हो, जो सबके मूल में अवस्थित हो, जो सबके पहले से विद्यमान हो । आदि मूल=जो सबसे पहले का और सबका परम कारण हो । स्फुटित=फूटा हुआ, निकला हुआ, जो प्रकट हुआ हो । प्रथम=पहले, पहले-पहल । परा धारा=श्रेष्ठ धारा, चेतन धारा । ब्रह्मनाद=नादब्रह्म, शब्दब्रह्म, ब्रह्म का शब्दरूप, शब्दरूपी ब्रह्म, परमात्मा से संबंधित नाद, वह नाद जो सृष्टि-निर्माण-हेतु परब्रह्म से पहले-पहल उत्पन्न हुआ । शब्दब्रह्म=शब्दरूपी ब्रह्म, आदिनाद जिसे कुछ लोग ब्रह्म का ही स्वरूप मानते हैं । प्रतीक=चिह्न, वह जिससे किसी की पहचान हो जाए । (आदिनाद परमात्मा की पहचान करा देता है, इसीलिए वह परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है ।) प्रभु का ध्वन्यात्मक नाम=परम प्रभु परमात्मा का वह नाम जो वर्णों से नहीं, ध्वनि से बना हुआ है जो वास्तव में उसका साक्षात्कार करा देता है । सारशब्द= आदिनाद जो सृष्टि का सारतत्त्व है अर्थात् जिसके आधार पर सारी सृष्टि टिकी हुई है और सृष्टि से जिसके निकल जाने पर सृष्टि का विनाश हो जाता है । सत्शब्द=वह आदिनाद जो अविनाशी (अपरिवर्त्तनशील) है । सत्=अविनाशी, अपरिवर्त्तनशील । चेतन=ज्ञानमय, ज्ञानस्वरूप । अव्यक्त=जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आए; यहाँ अर्थ है-वह आदिनाद जो कर्ण इन्द्रिय के द्वारा सुना नहीं जाता । व्यक्त=इन्द्रियों के ग्रहण में आनेवाला । व्यापक=जो किसी में फैला हुआ हो । ध्वनि राम=राम ध्वनि, रामनाम, सर्वव्यापक ध्वनि, आदिनाद जो समस्त प्रकृति-मंडलों में फैला हुआ है । (राम=व्यापक) सर्वकर्षक=सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाला, सबकी सुरत को अपने उद्गम-केन्द्र की ओर खींचनेवाला । हरि, हर=हरनेवाला, खींचनेवाला । कृष्ण=आकर्षित करनेवाला । परम प्रचंडिनि शक्ति=परम प्रचंड शक्ति, परमात्मा की अत्यन्त बड़ी शक्ति जिसके द्वारा परमात्मा सृष्टि करता है । शिव=कल्याण, कल्याणकारी । शंकर (शम्+कर)= कल्याण करनेवाला । रामनाम=राम अर्थात् परम प्रभु परमात्मा का असली नाम । अकथ=जो कहने में नहीं आए, मुँह से जिसका उच्चारण नहीं किया जा सके । अगम=अगम्य, नहीं जानने योग्य, नहीं जानेयोग्य, जहाँ कोई पहुँच न सके, बुद्धि से परे, बहुत, अत्यन्त; यहाँ अर्थ है-अपार । [आदिनाद को पदावली में अन्यत्र भी अगम-अपार कहा गया है; देखें- श्श् घट घट में होता आप ही, यह शब्द अगम अपार है ।य् (137वाँ पद्य) ‘धुन अनहत अपार, परम पुरुष को अकार।’ (77वाँ पद्य),ह् पूर्णकाम=जिसकी सभी इच्छाएँ पूरी हो गई हों; यहाँ अर्थ है-जो सभी इच्छाओं को पूरा कर दे, पूरण काम । स्वर=जो वर्ण (अक्षर) स्वतंत्र रूप से उच्चरित हो; जैसे-अ इ उ ऋ Æ ए ओ आदि । व्यंजन=जो वर्ण स्वर की सहायता से उच्चरित हो; जैसे-क् च् ट् त् प् य् र् ल् ह् आदि । अघोष (अ+घोष)=अ-नाद, नाद-रहित, जो वस्तुओं के कंपित होने से उत्पन्न ध्वन्यात्मक शब्द नहीं हो, जो जड़ात्मक मंडलों के ध्वन्यात्मक शब्दों से भिन्न ध्वनि हो, जिसका उच्चरण मुँह से नहीं किया जा सके । (आदिनाद अलौकिक और चेतन अनाहत नाद है ।) अदोष=दोष-रहित, निर्मल, विकार-रहित, त्रय गुण-रहित, निर्गुण । सत्नाम=सच्चा नाम, अपरिवर्तनशील ध्वन्यात्मक शब्द । सेवित=सेवन किया हुआ, ध्यान किया हुआ । ऋषि=वैदिक मन्त्रें के द्रष्टा जो आत्मज्ञ महापुरुष थे । मुनि=मननशील, गंभीर विचारक, जो ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, जीवन के उद्देश्य आदि दार्शनिक बातों पर विचार करे; गुरु का नाम=आदिगुरु परमात्मा का नाम, गुरुशब्द, सारशब्द; देखें- श्श् सतगुरु शब्द जो करे खोज, कहैं दरिया तब पूरन जोग ।य् (दरिया साहब बिहारी)

भावार्थ-इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य, आदि-रहित, अन्त-रहित, किसी के भी द्वारा शासित नहीं होनेयोग्य, अजन्मा, सृष्टि का आदितत्त्व और सबकी उत्पत्ति का जो परम कारण है, उस परमात्मा से आदिसृष्टि के निर्माण के लिए पहले-पहल चेतन ध्वनि की जो धारा निकली, वही स्फोट कहलाती है ।।1।। आदिसृष्टि के पूर्व परमात्मा से निकली हुई चेतन ध्वनि की वही धारा स्फोट कहलाती है; दूसरी और कोई ध्वनि नहीं । वही उद्गीत, ब्रह्मनाद, शब्दब्रह्म और ओम् भी कही जाती है । अत्यन्त मीठी प्रणव-ध्वनि की धारा वही है और परमात्मा का सच्चा चिह्न भी वही है ।।2।। परम प्रभु परमात्मा का ध्वन्यात्मक नाम वही है; संत-वाणी में सारशब्द और सत्शब्द आदि नामों से भी वही जानी जाती है । वह अपरिवर्त्तनशील, ज्ञानमयी और कर्ण इन्द्रिय से नहीं सुनी जा सकनेवाली है । इन्द्रियों के ग्रहण में आनेवाले सभी पदार्थों में व्यापक ध्वनि वही है ।।3।। समस्त प्रकृति-मंडलों में व्याप्त होकर रहनेवाली वही ध्वनि रामनाम भी कहलाती है । साधना के द्वारा अपने शरीर के अन्दर पकड़े जाने पर सबकी सुरत को अपने उत्पत्ति-केन्द्र (परमात्मा) की ओर खींचनेवाली होने से वही हरिनाम और कृष्णनाम भी कहलाती है । वही परमात्मा की अत्यन्त बड़ी शक्ति है; कल्याणकारी होने के कारण वही शिवनाम और शंकरनाम भी कही जाती है । त्रय तापों को हर लेनेवाली होने के कारण वही हरनाम भी कहलाती है ।।4।। त्रय गुणों (सत्त्व, रज और तम) से विहीन और रामनाम (परम प्रभु परमात्मा का सच्चा नाम) वही है । मुँह से उच्चारित नहीं की जा सकनेवाली, अपार और सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देनेवाली ध्वनि वही है । वह स्वर-व्यंजन वर्णों से नहीं बना हुआ अर्थात् ध्वन्यात्मक, नाद-रहित (जड़ात्मक मंडलों के ध्वन्यात्मक शब्दों से भिन्न) और निर्मल चेतन ध्वनि का समुद्र है अर्थात् अपार निर्मल चेतन ध्वनि है ।।5।। गुरु नानकदेवजी द्वारा कहा हुआ ‘1 ॐ सत्नाम’ भी वही है । ऋषियों के द्वारा ध्यान किया हुआ परम प्रभु परमात्मा का नाम वही है । इसी तरह मुनियों-द्वारा ध्यान किया हुआ गुरुनाम (आदिगुरु परमात्मा का नाम) भी वही है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि परम प्रभु परमात्मा के इसी ओम् कहलानेवाले अत्यन्त सूक्ष्म ध्वन्यात्मक नाम का भजन (ध्यान) करो ।।6।।

टिप्पणी-1- जो आदि-अन्त-रहित है, उसके पूर्व उससे भिन्न दूसरा कुछ नहीं हो सकता । 2- परमात्मा अपने से बाहर अवकाश नहीं रखनेवाला, अनन्त, अखंडित और सर्वत्र अत्यन्त सघन होकर विद्यमान है । इसलिए उसमें लचकन-सिकुड़न, गति या कंपन नहीं हो सकता । संसार में कोई चीज बने और कंपन नहीं हो, यह संभव नहीं । एक मिट्टी की गोली बनाते समय भी हमारे हाथों की उँगलियों में और मिट्टी के लोंदे में कंपन होता है । इसलिए यह बिलकुल सत्य है कि बिना कंपन के कोई क्रिया या कोई रचना नहीं हो सकती । परमात्मा ने आदिसृष्टि के पूर्व अपनी सर्वशक्तिमत्ता से एक शब्द पैदा किया । उसी शब्द का कंपन सृष्टि का कारण हुआ । 3- वैयाकरणों ने आदिशब्द की व्याख्या ‘स्फोट’ नाम से की है । वे इसको ‘शब्दब्रह्म’ भी कहते हुए इसकी एकता श्रीमदाद्य शंकराचार्य के अद्वैत ब्रह्म से बतलाते हैं । जो किसी अर्थ (प्रयोजन, अभीष्ट, प्राप्तव्य) को प्रकट कर दे या प्राप्त करा दे, उसे स्फोट कहते हैं । आदिनाद परमात्मा का साक्षात्कार करा देता है, इसीलिए वह स्फोट कहलाता है । 4- अत्यन्त मधुर आदिनाद बहुत तीव्र स्वर में सृष्टि के अन्तस्तल में निरन्तर ध्वनित हो रहा है, मानो वह परमात्मा-द्वारा तीव्र स्वर में गाया गया कोई मधुरतम  गीत  हो । आदिनाद  को उद्गीथ या उद्गीत कहने का यही कारण है । 5- अ, उ और म् की संधि से बना ‘ओम्’ शब्द मुँह के उच्चारण के सभी स्थानों को भरते हुए उच्चरित होता है । ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं है । ध्वन्यात्मक आदिनाद भी संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त होकर ध्वनित हो रहा है । इसीलिए ‘ओम्’ शब्द ध्वन्यात्मक आदिनाद का सबसे अच्छा  वाचक  माना गया । 6- साधक जिसको नमन करे अर्थात् जिसको पाने की इच्छा करे, उसे ‘प्रणव’ कहते हैं । साधक अनहद ध्वनियों के बीच आदिनाद को पकड़ने की इच्छा करता है, इसीलिए आदिनाद ‘प्रणव’ कहलाता है। ‘प्रणव’ (प्र+नव) का इस तरह भी अर्थ करना अनुचित नहीं है कि जो प्रकृति से उत्पन्न संसार-महासागर को पार कराने के लिए नाव के समान हो अथवा जो साधक को प्रकृष्ट रूप से नवीन (शुद्धस्वरूप अथवा शिवस्वरूप) कर दे । 7- ‘प्रतीक’ का अर्थ है-चिह्न । किसी वस्तु का चिह्न वह है जो उसकी पहचान करा दे । आदिनाद पकड़े जाने पर परमात्मा की प्रत्यक्षता करा देता है । इसीलिए वह परमात्मा का सच्चा चिह्न है । 8- जो शब्द स्वर-व्यंजन वर्णों से बना होता है, उसे वर्णात्मक शब्द कहते हैं; जैसे-आम, राम, गाय आदि । इसके विपरीत जो शब्द वर्णों से नहीं, ध्वनि से बना होता है, उसे ध्वन्यात्मक शब्द कहते हैं; जैसे-पशु-पक्षी और वाद्ययंत्र की आवाज, वस्तुओं के गिरने से उत्पन्न आवाज आदि । परमात्मा का असली नाम ध्वन्यात्मक ही है । 9- आदिनाद कर्ण इन्द्रिय से नहीं, सुरत से सुना जाता है । 10- जड़-चेतन-दोनों प्रकृतियों के बनने के पूर्व ही आदिनाद उदित हुआ है, इसीलिए वह दोनों प्रकृति-मंडलों में व्यापक है; और दोनों प्रकृति-मंडलों के फैलाव से अधिक फैलाव रखने के कारण ही वह अगम-अपार भी कहलाता है ।। 11- आदिनाद  परमात्मा  की  अत्यन्त बड़ी शक्ति है; इसीसे वह सृष्टि करता है । 12- ‘घोष’ का अर्थ होता है-ध्वन्यात्मक शब्द; जैसा कि रथघोष, शंखघोष आदि शब्दों से पता चलता है । आदिनाद को अघोष (घोष-रहित, नाद-रहित) इसलिए कहते हैं कि वह किसी जड़ात्मक मंडल का ध्वन्यात्मक शब्द नहीं है, परमालौकिक चेतन ध्वनि है । व्याकरण में घोष वर्ण उसे कहते हैं, जिसके उच्चारण में गले की स्वरतंËी में कंपन होता है; जैसे-ग, घ, घ, ज, झ, ×ा आदि । इसके विपरीत जिस वर्ण के उच्चारण में गले की स्वरतंËी में कंपन नहीं होता है, उसे अघोष वर्ण कहते हैं; जैसे क, ख, च, छ, ट, ठ  आदि ।  आदिनाद  भी  किसी  पदार्थ के कंपन  का  परिणाम  नहीं  है । ‘ब्रह्माण्ड पुराणोत्तर गीता’ में भी आदिनाद को अघोष (नाद-रहित), स्वर-व्यंजन-रहित और मुँह के उच्चारण- अवयवों से नहीं उच्चारित होनेयोग्य बताया गया है; देखें- श्श् अघोषमव्यंजनमस्वरं च अतालुकण्ठोष्ठमनासिकं च । अरेफजातं परमुष्मवर्जितं तदक्षरं न क्षरते कदाचित् ।।य् 13- त्रयगुणात्मिका मूल प्रकृति के बनने के पूर्व ही आदिनाद उत्पन्न हुआ है, इसलिए वह सगुण नहीं-निर्गुण है और निर्गुण होने से वह दोष-रहित (निर्मल, विकारहीन) है । 14- आदिनाद में जिनकी सुरत लग जाती है, वे ही ऋषि या सन्त कहलाने के अधिकारी हैं । 15- दूर की वस्तु के लिए ‘वह’ सर्वनाम प्रयुक्त होता है; परन्तु जब उसकी बहुत चर्चा हो चुकी होती है, तब उसके लिए ‘यह’ का भी प्रयोग किया जा सकता है । 16- उपनिषदों में आदिनाद को ओम्, उद्गीथ, प्रणव आदि कहा गया है । संतवाणी में इसे सत्शब्द, सत्नाम, सारशब्द, आदिनाम आदि कहकर अभिहित किया गया है । ध्वन्यात्मक आदिनाद अद्वितीय ध्वनि है । संतमत की चौथी साधना-पद्धति सुरत-शब्द-योग (नादानुसंधान) में आदिनाद की ही खोज की जाती है । यह इसलिए महत्त्वपूर्ण ध्वनि है कि यही परमात्म-साक्षात्कार कराने में सक्षम है। श्रीमदाद्य शंकरा- चार्यजी ने भी नादानुसंधान का गुणगान किया है; देखें-‘नादानुसंधान नमोऽस्तु तुभ्यं त्वां मन्महे तत्त्व पदं लयानाम्।’ (योगतारावली) 8- पाँचवें पद्य को दुर्मिल सवैया में बाँधने का प्रयास किया गया है । दुर्मिल सवैया में आठ सगण (।।ऽ) होते हैं ।


(6)

।। सन्तमत-सिद्धान्त ।।

1- जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे ही सर्वेश्वर-सर्वाधार मानना चाहिये तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में अगुण और सगुण पर, अनादि-अनन्त-स्वरूपी, अपरम्पार शत्तिफ़युत्तफ़, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम-रूपातीत, अद्वितीय, मन-बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति मण्डल एक महान् यन्त्र की नाईं परिचालित होता रहता है, जो न व्यत्तिफ़ है और न व्यत्तफ़ है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाश नहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, सन्तमत में उसे ही परम अध्यात्म-पद वा परम अध्यात्मस्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं ।
2- जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है ।
3- प्रकृति आदि-अन्त-सहित है और सृजित है ।
4- मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है । इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है । इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भत्तिफ़ ही एकमात्र उपाय है ।
5- मानस जप, मानस ध्यान, दृि"-साधन और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भत्तिफ़ करके अन्धकार, प्रकाश  और  शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य-मात्र अधिकारी है ।
6- झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिसा करनी अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्य पदार्थ समझना और चोरी करनी; इन पाँचो महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिये ।
7- एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना, सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; इन पाँचो को मोक्ष का कारण समझना चाहिये ।

शब्दार्थ-परम तत्त्व=सबसे पहले का तत्त्व या पदार्थ, आदितत्त्व, सर्वोपरि तत्त्व, सबसे श्रेष्ठ तत्त्व, मूलतत्त्व जिससे समस्त सृष्टि हुई है । आदि-अन्त-रहित=जिसका कहीं न ओर हो, न छोर । असीम (अ+सीम)=सीमा-रहित, अपार, अनन्त । अजन्मा (अ+जन्मा)=अज, जो किसी से जनमा हुआ (उत्पन्न) नहीं है, जो कभी जन्म नहीं लेता । अगोचर (अ+गो+चर)=जो किसी भी इन्द्रिय का विषय नहीं है, जो किसी भी इन्द्रिय की पकड़ में नहीं आए, अविषय, जो पंच विषयों में से कुछ भी नहीं है । (गो=इन्द्रिय । गोचर=जिसमें इन्द्रिय विचरण करे, जो किसी इन्द्रिय की पकड़ में आए, जो किसी इन्द्रिय का विषय हो, रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द । चर=चलनेवाला, जानेवाला ।) सर्वव्यापक=जो सबमें (समस्त प्रकृति-मंडलों में) अत्यन्त सघनता से फैला हुआ हो । (व्यापक=फैला हुआ ।) सर्वव्यापकता के भी परे=समस्त प्रकृति-मंडलों में व्यापक होकर उनसे बाहर भी अपरिमित रूप से विद्यमान रहनेवाला । सर्वेश्वर (सर्व+ईश्वर)=सबका स्वामी, सबका शासक । सर्वाधार (सर्व+आधार)=सबका आधार, जिसपर सब कुछ टिका हुआ हो । अपरा (अ+परा)=अपरा प्रकृति, निम्न कोटि की प्रकृति, जड़ प्रकृति (देखें-गीता, अ0 7, श्लोक 5) । परा=परा प्रकृति, उच्च कोटि की प्रकृति, चेतन प्रकृति (देखें गीता, अ  7, श्लोक 5)। अगुण (अ+गुण)=निर्गुण; सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों से जो विहीन है, चेतन प्रकृति । सगुण (स+गुण)=जो त्रय गुणों से युक्त है, जो त्रय गुणों से बना हुआ है, जड़ प्रकृति । पर=श्रेष्ठ, ऊपर, बाहर । अनादि (न+आदि)=जिसका कहीं आरंभ नहीं है, जिसके पहले उससे भिन्न दूसरा कुछ नहीं है, जो उत्पत्ति-रहित है । अनादि-अनन्तस्वरूपी= आदि-अन्त-रहित स्वरूपवाला । अपरम्पार (संस्कृत अरंपर)=जिसका वारापार (हद, सीमा, वार-पार) नहीं है, असीम । शक्ति-युक्त= शक्ति-सहित, शक्तिवाला, शक्तिमान् । देशकालातीत (देश+काल+अतीत)=स्थान और समय से ऊपर (अतीत=बीता हुआ, अलग, परे, बाहर)। शब्दातीत (शब्द+अतीत)=शब्द-मंडल से ऊपर, शब्द-विहीन, निःशब्द । नामरूपातीत (नाम-रूप+अतीत)=नामरूप-विहीन, कोई वर्णात्मक नाम जिसका सच्चा नाम नहीं है और जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा शब्द गुणों में से कोई गुण नहीं है, जिसमें कोई विशेषता, लक्षण या गुण-धर्म नहीं है, जिसका विस्तार, माप-तौल या संख्या नहीं बतायी जा सके । अद्वितीय (अ+द्वितीय)=जिसके समान दूसरा कोई या कुछ नहीं है, बेजोड़, उपमा-रहित, एकमात्र, अकेला । इन्द्रिय=कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ । परम सत्ता=परम अस्तित्ववान्, जो व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्ताओं से उच्चतर पारमार्थिक सत्ता है, जिसकी अपनी निजी स्थिति है । महान् यंत्र=बड़ी मशीन, बड़ा कल । नाईं (संस्कृत न्याय)=तरीका, रीति, पद्धति, भाँति, तरह, समान । परिचालित होता रहता है=चलाया जाता रहता है । जो न व्यक्ति है=जो साधारण प्राणियों एवं मनुष्यों में से और राम-कृष्ण आदि जैसे विशेष धर्मवान् तथा अवतारी पुरुषों में से भी कोई नहीं है- श्श् बरन विहीन, न रूप न रेखा, नहि रघुवर नहि श्याम ।य् (12वाँ पद्य) न व्यक्त है=जो इन्द्रियों के ग्रहण में आनेवाले पदार्थों में से कुछ भी नहीं है । जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है=मायिक पदार्थों में पाये जानेवाले विस्तृतत्व (विस्तृत+त्व), विस्तृति या विस्तार; जैसे लंबाई-चौड़ाई-मुटाई वा ऊँचाई-गहराई, माप-तौल, संख्या आदि जिसके नहीं बतलाये जा सकें । (लंबाई-चौड़ाई-मुटाई वा ऊँचाई-गहराई, माप-तौल, संख्या आदि मायिक पदार्थों के ही बताये जा सकते हैं । परमात्मा परमालौकिक तत्त्व है, उसमें विस्तार नहीं है ।) अवकाश=खाली जगह । परम सनातन=जो अत्यन्त प्राचीन और अत्यन्त अविनाशी हो, जो सदा से ही विद्यमान हो । परम पुरातन=जो अत्यन्त प्राचीन काल से अपना अस्तित्व रखता हुआ आ रहा हो, जिससे पुराना और कोई वा कुछ नहीं हो । (सनातन=नित्य, शाश्वत, स्थायी, स्थिर, प्राचीन । पुरातन=प्राचीन, पुुराना।) सर्वप्रथम से=सबके पहले से । अध्यात्म=आत्मा से संबंध रखनेवाला, आत्मा, परमात्मा । पद=स्थान, आधार । (परमात्मा में स्थान और स्थानीय का भेद नहीं होता ।) अध्यात्मस्वरूपी=जो आत्मा या परमात्मा का स्वरूप (मूलरूप) हो । परम प्रभु=जिससे बड़ा दूसरा कोई शासक नहीं हो । कुल्ल मालिक=कुल मालिक (अरबी), सबका स्वामी, सर्वेश्वर । जीवात्मा=प्राणियों के शरीर में स्थित आत्मतत्त्व या चेतन आत्मा । अभिन्न (अ+भिन्न)=जो भिन्न नहीं हो, जो अलग नहीं हो, अटूट । अंश=अवयव, हिस्सा, भाग । सृजित=रचित, जो रचा गया हो, जो बनाया गया हो । मायाबद्ध=माया में बँधा हुआ, माया में फँसा हुआ । सर्वेश्वर की भक्ति=परमात्मा की भक्ति, शरीर के अन्दर आवरणों से छूटते हुए परमात्मा की ओर चलना । मानस जप=मन-ही-मन गुरु-द्वारा बतलाये गये मंत्र की बारंबार या लगातार आवृत्ति करना । मानस ध्यान=इष्ट के स्थूल रूप का मन-ही-मन चिन्तन करते रहना, इष्ट के देखे हुए स्थूल रूप को ज्यों-का-त्यों मन में उगाने का प्रयत्न करना । दृष्टि-साधन=दृष्टि के द्वारा की जानेवाली साधना, दृष्टियोग, आँखें बन्द करके दोनों दृष्टिधारों को गुरु- द्वारा बतलाये गये स्थान पर जोड़ने का अभ्यास करना । सुरत-शब्द-योग=नादानु-   संधान, आंतरिक ब्रह्माण्ड में होनेवाली अनहद ध्वनियों के बीच आदिनाद की परख करके उसमें सुरत को संलग्न करने की युक्ति । एकता का=एक होने का, एक हो जाने का । मात्र=समस्त, सभी, सिर्फ, केवल । व्यभिचार=परÐी के साथ पुरुष का और परपुरुष के साथ Ðी का सहवास करना । हिसा करना=मन, वचन, शरीर और कर्म से किसी प्राणी को दुःख पहुँचाना । (हिसा दो प्रकार की होती है-वार्य और अनिवार्य । वार्य हिसा से साधक को बचना चाहिए ।) मत्स्य=मछली । खाद्य पदार्थ=खाने-योग्य पदार्थ । एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास=परमात्मा एक ही है-इसपर अटल विश्वास होना । पूर्ण भरोसा=पूर्ण रूप से आश्रित होना, पूरा आसरा, पूरी आशा, पूरा विश्वास; जो परिस्थिति हमारे समक्ष आयी हुई है, वह परमात्मा की भेजी हुई है, उससे हमें कुछ लाभ ही होगा-ऐसा विश्वास रखना । दृढ़=पक्का, मजबूत । निश्चय=संकल्प, धारणा, विचार, विश्वास । निष्कपट=कपट- रहित, छल-रहित, दुराव-छिपाव-रहित, सच्चा । मोक्ष=परम मोक्ष, सब शरीरों और संसार से सदा के लिए छूट जाना ।

(7)
श्री  सद्गुरू  की  सार  शिक्षा, याद  रखनी  चाहिये ।
अति अटल श्रद्धा  प्रेम से, गुरु-भत्तिफ़ करनी चाहिये ।।1।।
मृग-वारि सम सब ही प्रप×चन्ह, विषय सब दुख रूप हैं ।
निज सुरत  को  इनसे हटा, प्रभु में लगाना चाहिये ।।2।।
अव्यत्तफ़  व्यापक  व्याप्य  पर जो, राजते  सबके  परे ।
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में, प्रेम  करना  चाहिये ।।3।।
जीवात्म प्रभु का अंश है, जस अंश नभ को देखिये ।
घट मठ प्रपंचन्ह  जब  मिटैं, नहि अंश कहना चाहिये ।।4।।
ये  प्रकृति  द्वय  उत्पत्ति-लय, होवैं प्रभू की मौज से ।
ये अजा अनाद्या  स्वयं  हैं, हरगिज न कहना चाहिये ।।5।।
आवागमन  सम  दुःख  दूजा, है  नहीं  जग  में  कोई ।
इसके  निवारण  के  लिये, प्रभु-भत्तिफ़ करनी चाहिये ।।6।।
जितने मनुष तन धारि हैं, प्रभु-भत्तिफ़ कर सकते सभी ।
अन्तर  व  बाहर भत्तिफ़  कर, घट-पट  हटाना  चाहिये ।।7।।
गुरु-जाप  मानस  ध्यान  मानस, कीजिये  दृढ़  साधकर ।
इनका  प्रथम  अभ्यास  कर, स्त्रुत  शुद्ध  करना चाहिये ।।8।।
घट तम प्रकाश व शब्द पट त्रय, जीव पर हैं छा  रहे ।
कर दृि" अरु ध्वनि योग साधन, ये हटाना चाहिये ।।9।।
इनके हटे माया हटेगी, प्रभु से होगी एकता ।
फिर  द्वैतता नहि कुछ रहेगी, अस  मनन  दृढ़  चाहिये ।।10।।
पाखण्ड अरुऽहंकार तजि, निष्कपट हो अरु दीन हो ।
सब कुछ समर्पण कर गुरू की, सेव करनी चाहिये ।।11।।
सत्संग नित अरु ध्यान नित, रहिये  करत  संलग्न  हो ।
व्यभिचार  चोरी  नशा  हिसा, झूठ  तजना  चाहिये ।।12।।
सब सन्तमत सिद्धान्त ये, सब सन्त दृढ़ हैं कर दिये ।
इन अमल थिर सिद्धान्त को, दृढ़ याद रखना चाहिये ।।13।।
यह सार है सिद्धान्त सबका, सत्य गुरु को सेवना ।
‘मेँही ँ’ न हो  कुछ यहि बिना, गुरु सेव करनी  चाहिये ।।14।।

शब्दार्थ-श्री=श्रीयुत्, श्रीमत्, एक आदरसूचक शब्द जो आदरणीय व्यक्ति के नाम के पहले जोड़ा जाता है । (श्री=धन, यश, शोभा, प्रतिष्ठा, गौरव, महिमा, सौंदर्य । ‘सद्गुरु’ संबंध-सूचक शब्द है) सार=मुख्य, उत्तम, श्रेष्ठ, सच्चा । याद (फा )=स्मरण, स्मृति । श्रद्धा=किसी के प्रति विश्वास या आदर, प्रेम और पूज्य भाव, अटल विश्वास; गुरु-वाक्य, सच्छाÐ और सद्विचार-तीनों का मेल होने पर होनेवाला अटल विश्वास । मृग-वारि=मृगजल, रेगिस्तान में ज्येष्ठ-वैशाख के दिनों में कड़ी धूप के कारण दूर में मालूम पड़नेवाला जलाशय, जिस ओर हिरन अपनी प्यास बुझाने के लिए दौड़ता है । प्रपंच=झूठा, भ्रम । दुखरूप=दुःख का साक्षात् रूप, दुःख का कारण, दुःख देनेवाला । अव्यक्त=जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आए । व्यापक=सर्वव्यापक, सबमें फैला हुआ, समस्त प्रकृति-मंडलों में फैला हुआ परमात्म-अंश । व्याप्य=जिसमें कुछ फैलकर रहता हो, समस्त प्रकृति-मंडल जिनमें परमात्म-अंश व्यापक है । व्याप्य पर=प्रकृति-मंडलों से बाहर, सर्वव्यापकता के परे । राजते=राजता है, विद्यमान है, स्थित है, शोभित है । परे=बाहर, ऊपर । अनादि (न+आदि)=आदि-रहित । अंश=हिस्सा, अवयव, भाग । घट=घड़ा । मठ=मकान, घर । प्रपंच=आवरण । द्वय=दोनों । लय=विलय, मिलना, लीन होना, नाश । प्रकृति द्वय=दोनों प्रकृतियाँ-जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति । मौज (अ0 Ðी0)=तरंग, लहर, उत्साह, उमंग, आनन्द, ईक्षण, संकल्प, शब्द-धार, आदिशब्द, सारशब्द । अजा (अज का Ðीलिग रूप)=अजन्मा । अनाद्या (अनादि का Ðीलिग रूप)=आदि-रहित, अपूर्व, जिसके पूर्व और कुछ नहीं हो । हरगिज (फा0)=कदापि, कभी भी । आवागमन=आना- जाना, जन्म-मरण । निवारण=हटाना, रोकना, दूर करना । तनधारि=शरीरधारी । अन्तर-भक्ति=अन्तर्मुख कर देनेवाली भक्ति, सूक्ष्म एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म उपासना, ध्यानाभ्यास-विन्दु-ध्यान और नाद-ध्यान । व (फा0)=और । बाहरी भक्ति=बाहरी सत्संग, गुरु-सेवा और स्थूल उपासना-मानस जप और मानस ध्यान। (मानस जप और मानस ध्यान से साधक सूक्ष्म जगत् में प्रवेश नहीं कर पाता ।) घट-पट=शरीर के अन्दर जीवात्मा पर पड़े हुए आवरण-अंधकार, प्रकाश और शब्द । दृढ़ साधकर=मजबूती अपनाकर । त्रय=तीनों । स्त्रुत=सुरत, चेतनवृत्ति । तम=अंधकार । पट= आवरण । हैं छा रहे=छा रहे हैं, फैले हुए हैं, पड़े हुए हैं । घट=घड़ा, कच्चे घड़े की तरह क्षणभंगुर शरीर । ध्वनियोग=शब्दयोग । माया=जड़ और चेतन प्रकृतिरूपी भ्रम । एकता=एक होने का भाव । द्वैतता=द्वैत भाव, अलगाव, भिन्नता । अस=ऐसा। मनन=विचार । पाखंड=ढोंग, आडम्बर, दिखावे का आचरण । अहंकार=घमंड । निष्कपट (निः+कपट)=  कपट-रहित, छल-रहित, सच्चा, सरल । दीन=नम्र, अहंकार-रहित । संलग्न हो=अच्छी तरह लगा हुआ रहकर, तत्परतापूर्वक, मुस्तैदी के साथ । अमल (अ+मल)=दोष-रहित, त्रुटि-विहीन, पवित्र, शुद्ध । सिद्धांत (सिद्ध+अंत)=वह ज्ञान जो विचार और अनुभव से अन्ततः पूर्णरूप से सत्य सिद्ध हो गया हो, निश्चित मत ।


भावार्थ-बड़ी महिमावाले सद्गुरु की मुख्य शिक्षाओं को सदा स्मरण में रखना चाहिए और अत्यन्त अटल श्रद्धा तथा प्रेम से उनकी भक्ति करनी चाहिए ।।1।। 
मृगजल (मरुभूमि में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के आधार पर दूर में प्रतीत होनेवाले जलाशय) की भाँति सब कुछ (सारा संसार) झूठा है और पंच विषयों के सुख परिणाम में दुःख देनेवाले हैं । इसलिए संसार के पंच विषयों की आसक्ति से अपनी सुरत को हटाकर ईश्वर की भक्ति में लगाना चाहिए ।।2।। 
जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आनेयोग्य, सर्वव्यापक (समस्त प्रकृति-मंडलों में अंश-रूप से फैला हुआ) और व्याप्य से परे (समस्त प्रकृति-मंडलों से बाहर, सर्वव्यापकता के परे) अपरिमित रूप से विद्यमान है, उस अजन्मा और आदि-अन्त-रहित परमात्मा से प्रेम करना चाहिये ।।3।। 
जैसे घटाकाश (घड़े के अन्दर का आकाश) और मठाकाश (घर के अन्दर का आकाश) महदाकाश (बड़े आकाश, आवरण-रहित विस्तृत आकाश) के अटूट अंश हैं, उसी तरह जीवात्मा परमात्मा का अटूट अंश है । जैसे घट-मठरूप आवरणों के हट जाने पर घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अंश नहीं कहलाकर महदाकाश ही कहलाने लगते हैं, उसी तरह शरीर-रूपी आवरणों के हट जाने पर जीवात्मा भी परमात्मा का अंश न कहलाकर परमात्मा ही कहलाने लगता है ।।4।। 
जड़ और चेतन-ये दोनों प्रकृतियाँ परम प्रभु परमात्मा की मौज (आदिशब्द) से उत्पत्ति और लय को प्राप्त होती रहती हैं । ये दोनों प्रकृतियाँ उत्पत्ति-विहीन, अनाद्या (जिनके पूर्व और कुछ नहीं हो) और अपने-आपमें स्वतंत्र हैं-ऐसा कदापि नहीं मानना चाहिए ।।5।। 
जनमने और मरने के दुःख के समान संसार में और कोई दुःख नहीं है अथवा जन्म और मरण के समान दुःख का सबसे बड़ा कारण दूसरा कुछ नहीं है । जनमने-मरने के चक्र को रोकने के लिए परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए ।।6।। 
मनुष्य-शरीरधारण किये हुए जितने प्राणी हैं, सभी परमात्मा की भक्ति करने के अधिकारी हैं । अन्तर और बाहर की भक्ति करके शरीर के अन्दर जीवात्मा पर पड़े हुए आवरणों को हटाना चाहिए ।।7।। 
गुरु-मंत्र का मानस जप और गुरु के देखे हुए स्थूल रूप का मानस ध्यान मजबूती अपनाकर कीजिए । पहले मानस जप और मानस ध्यान का अभ्यास करके अपनी सुरत को निर्मल कर लेना चाहिए ।।8।। 
अंधकार, प्रकाश और शब्द-ये तीन आवरण शरीर के अन्दर जीवात्मा पर पड़े हुए हैं । दृष्टियोग और शब्दयोग की साधनाएँ करके इन आवरणों को हटाना चाहिए ।।9।। 
इन आवरणों के हट जाने पर माया हट जाएगी और जीवात्मा की परमात्मा से एकता हो जाएगी । फिर जीवात्मा और परमात्मा के बीच कुछ भी द्वैतता (अलगाव-भेद-अन्तर) नहीं रह जायगी-ऐसा मजबूत विचार सदा अपनाये रखना चाहिए अर्थात् सदा ही ऐसा अटल विश्वास रखना चाहिए ।।10।। 
पाखंड (दिखावे के आचरण) और अहंकार (घमंड) को छोड़कर, कपट-रहित और नम्र होकर तथा सब कुछ के समर्पण भाव से गुरु की भक्ति करनी चाहिये ।।11।। 
प्रतिदिन पूरी संलग्नता के साथ सत्संग और ध्यानाभ्यास करते रहिए । इसके लिए व्यभिचार (पुरुष के लिए परÐीगमन और स्त्री के लिए परपुरुष-गमन), चोरी, नशा-सेवन, हिसा (जीवों को किसी भी प्रकार से कष्ट पहुँचाना) और झूठ (असत्य भाषण) का परित्याग करना चाहिए ।।12।। 
ये सभी सन्तमत-सिद्धान्त सभी सन्ताें ने निश्चित कर दिये हैं । इन त्रुटि-विहीन और सत्य सिद्धान्तों को मजबूती के साथ याद रखना चाहिए अर्थात् मजबूती के साथ अपनाना चाहिए ।।13।। 
सन्त सद्गुरु की सेवा करना-यह सभी सिद्धान्तों का सार है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि गुरु की सेवा किये बिना कुछ भी आध्यात्मिक लाभ नहीं होगा । इसलिए गुरु की सेवा अवश्य करनी चाहिए ।।14।।

टिप्पणी-1- घड़े के अन्दर का आकाश घटाकाश, घर के अन्दर का आकाश मठाकाश और जो सुविस्तृत आकाश किसी आवरण में नहीं है, वह महाकाश या महदाकाश कहलाता है । घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अटूट अंश हैं । ऐसा नहीं समझना चाहिए कि घट-मठरूप आवरणों के कारण घटाकाश और मठाकाश महदाकाश से अलग हो जाते हैं । (आकाश तो घट-मठरूप अवारणों में भी व्यापक होता है ।) जब घट-मठरूप आवरण नष्ट हो जाते हैं, तब घटाकाश और मठाकाश महदाकाश के अंश नहीं कहलाकर महदाकाश ही कहलाने लगते हैं । इसी तरह शरीर-स्थित आत्मतत्त्व जीवात्मा कहलाता है, जो परमात्मा का अटूट अंश है; परन्तु शरीरों के नष्ट हो जाने पर वह आत्मतत्त्व परमात्मा का अंश (जीवात्मा) न कहलाकर परमात्मा ही कहलाने लगता है । 2- जड़ और चेतन-दोनों प्रकृतियाँ परमात्मा से स्फुटित आदिनाद से उत्पन्न होती हैं और जब इन दोनों प्रकृतियों से आदिनाद निकल जाता है, तब ये दोनों प्रकृतियाँ विनष्ट हो जाती हैं । वेदान्त मानता है कि जड़ और चेतन-दोनों प्रकृतियों का मूलकारण परब्रह्म (परमात्मा) ही है; दोनों प्रकृतियाँ परब्रह्म के अधीन हैं-अपने-आपमें स्वतंत्र नहीं । प्रकृति देश-काल में नहीं उपजी है; प्रकृति के बनने पर ही देश-काल बने हैं । प्रकृति कहाँ (किस स्थान पर) और कब (किस समय) उत्पन्न हुई-यह नहीं बताया जा सकता, इसलिए प्रकृति देश-काल की दृष्टि से अनाद्या है । प्रकृति के पहले से परब्रह्म है, अतएव उत्पत्ति की दृष्टि से प्रकृति अनाद्या नहीं, साद्या (आदि-सहित, जिसके पूर्व कुछ हो) है । एकमात्र परब्रह्म ही सब प्रकार से (उत्पत्ति और देश-काल की दृष्टि से) अनादि है। यहाँ ‘अनादि’ का अर्थ है-जिसके पूर्व दूसरा कुछ भी नहीं हो ।
सांख्य-दर्शन के प्रवर्त्तक महर्षि कपिल सृष्टि के मूल में दो तत्त्वों को अनादि (अपूर्व और उत्पत्ति-रहित) मानते हैं, वे दो तत्त्व हैं-पुरुष और प्रकृति । उनकी मान्यता है कि पुरुष और प्रकृति से श्रेष्ठ तथा पहले का तीसरा कोई तत्त्व नहीं है । ये दोनों किसी से उत्पन्न नहीं हुए हैं और एक-दूसरे से भिन्न हैं । पुरुष अनेक, चेतन, साक्षी, निर्गुण, सर्वव्यापक, निष्क्रिय, निर्विकार और नित्य (अविनाशी) है । दूसरी ओर, प्रकृति जड़ और त्रय गुणस्वरूप है । यह भी नित्य है; परन्तु पुरुष की तरह नहीं । पुरुष सदा एकरस रहता है, कभी बदलता नहीं; लेकिन प्रकृति कार्यरूप में परिणत होनेवाली है । पुरुष से किसी पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती । प्रकृति पुरुष के सान्निध्य में जगत् की रचना करती है ।
महर्षि कपिल जिनको पुरुष और प्रकृति कहते हैं, उनको वेदान्त क्रमशः चेतन  प्रकृति और जड़ प्रकृति मानता है और इन दोनों से श्रेष्ठ तथा पहले का परब्रह्म को स्वीकार करता है । 3- विषयों के चिन्तन और सेवन से मन मलिन हो जाता है । मानस जप और मानस ध्यान पूर्ण होने पर मन की मलिनता दूर हो जाती है । 4- जन्म लेने पर ही जीव त्रय ताप भोगता है । यदि जन्म ही नहीं हो, तो त्रय ताप कौन भोगे; और यह भी सत्य ही है कि जो जन्म लेता है, वही मरता है । इसीलिए कहा जाता है कि जन्म-मरण ही दुःख पाने का सबसे बड़ा कारण है । फिर यह भी सत्य है कि जनमने-मरने के समय भी असह्य कष्ट होता है ।

(8)

।। सन्तमत की परिभाषा ।।

1- शान्ति स्थिरता वा निश्चलता को कहते हैं ।
2- शान्ति को जो प्राप्त कर लेते हैं, सन्त कहलाते हैं ।
3- सन्तों के मत वा धर्म को सन्तमत कहते हैं ।
4- शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है । प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया । इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया, इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं । परन्तु सन्तमत की मूलभित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं; क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के  जिस  विशेष साधन-नादानुसन्धान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव सन्तमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं । भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण सन्तों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय, तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है ।


शब्दार्थ-स्थिरता=स्थिर होने का भाव, मन का ठहराव, मन का निरोध । निश्चलता (निः+चलता)=मन की अचलता, मन का चलायमान न होना । (मन की पूर्ण स्थिरता विषयों की आसक्ति का त्याग करने पर होती है और आसक्ति का त्याग शब्द-साधना की पूर्णता होने पर होता है।) मत=विचार, मान्यता, विश्वास । धर्म= माननेयोग्य विचार, अपनानेयोग्य विचार, उपदेश, शिक्षा, बताया गया कर्त्तव्य कर्म । प्रेरण=प्रेरणा, प्रवृत्ति, झुकाव, आन्तरिक भाव । प्रेरित होकर=प्रेरणा पाकर, उत्तेजित होकर, उकसाया गया होकर, बाध्य होकर, बल पाकर । ऋषि=प्राचीन काल के वे आत्मज्ञ महापुरुष जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को संस्कृत भाषा में अभिव्यक्त किया, जो वेद-उपनिषद् आदि ग्रंथों में संकलित हैं । भारती=हिन्दी भाषा (सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज हिन्दी भाषा को ‘भारती भाषा’ कहना पसन्द करते थे । पंजाबी भाषा भी हिन्दी के ही अन्तर्गत है)। सर्वसाधारण=सभी  साधारण लोग । उपकारार्थ (उपकार+अर्थ)=भलाई के लिए । मूलभित्ति=मूल-  आधार (भित्ति= आधार, नींव, स्त्रोत, उद्गम, उत्पत्ति-स्थान)। उपनिषद्=वेद का अन्तिम भाग (ज्ञानकांड), जिसमें ब्रह्म, जीव, माया-प्रकृति, ब्रह्म-प्राप्ति के साधन, मानव-जीवन का उद्देश्य आदि दार्शनिक बातों की सूक्ष्म विवेचना है । जिस ऊँचे ज्ञान का=जिस ऊँचे अध्यात्म-ज्ञान का । उस ज्ञान के पद तक=उस अध्यात्म-ज्ञान के अध्यात्म-पद तक । नादानुसंधान (नाद+अनुसंधान)=वह युक्ति जिसके द्वारा शरीर के अन्दर में होनेवाली विविध असंख्य ध्वनियों के बीच आदिनाद की खोज की जाती है । सुरत-शब्द-योग=वह युक्ति जिसके द्वारा शरीर के अन्दर में होनेवाले आदिनाद में सुरत को संलग्न करने का अभ्यास किया जाता है । (नादानुसंधान और सुरत-शब्द-योग-दोनों एक ही साधन के अलग-अलग नाम हैं ।) अंकित होकर=लिखित होकर, लिखा जाकर । जगमगा रहे हैं=प्रकाशित हो रहे हैं, स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहे हैं । अनुयायी=जो किसी के पथ का अनुसरण करे, अनुगामी, शिष्य । नामकरण=नाम रखने की क्रिया । पृथक्त्व=पृथक्ता, अलगाव, भिन्नता । मोटी और बाहरी बातें=कंठी-छाप-तिलक धारण करना, छपी चादर ओढ़ना, सफेद या गैरिक वÐ पहनना, दाढ़ी-मूँछ-केश-शिखा रखना अथवा मुँड़ा लेना आदि बातें । पंथाई भाव=दूसरे के पंथ को ओछा और अपने पंथ को श्रेष्ठ मानते हुए अपने ही पंथ की बातों पर अविचारपूर्वक डटे रहने का भाव, साम्प्रदायिक भाव ।

(9)

।। अपराह्ण एवं सायंकालीन विनती ।।

प्रेम-भत्तिफ़ गुरु दीजिये, विनवौं कर जोड़ी ।
पल-पल छोह न छोड़िये, सुनिये गुरु मोरी ।। 1।।
युग-युगान चहुँ खानि में, भ्रमि-भ्रमि दुख भूरी ।
पाएउँ  पुनि  अजहूँ  नहि, रहुँ  इन्हतें  दूरी ।। 2।।
पल-पल मन माया रमे, कभुँ विलग न होता ।
भक्ति-भेद बिसरा रहे, दुख सहि-सहि रोता ।। 3।।
गुरु  दयाल  दया  करी, दिये  भेद  बताई ।
महा अभागी जीव के, दिये भाग  जगाई ।। 4।।
पर निज बल कछु नाहि है, जेहि बने कमाई ।
सो  बल  तब हीं  पावऊँ, गुरु  होयँ  सहाई ।। 5।।
दृि" टिकै स्त्रुति धुन रमै, अस करु गुरु दाया ।
भजन  में  मन ऐसो  रमै, जस रम सो  माया ।। 6।।
जोत जगे धुनि सुनि पड़ै, स्त्रुति चढ़ै अकाशा ।
सारधुन्न  में  लीन  होइ, लहे निज घर  वासा ।। 7।।
निजपन  की  जत कल्पना, सब जाय मिटाई ।
मनसा वाचा कर्मणा, रहे तुम में समाई ।। 8।।
आस  त्रस  जग के सबै, सब  वैर व नेहू ।
सकल  भुलै  एके  रहे, गुरु  तुम  पद  स्नेहू ।। 9।।
काम क्रोध मद लोभ के, नहि वेग सतावै ।
सब प्यारा परिवार अरु, सम्पति नहि भावै ।। 10।।
गुरु ऐसी  करिये  दया, अति होइ सहाई ।
चरण-शरण होइ कहत हौं, लीजै अपनाई ।। 11।।
तुम्हरे  जोत-स्वरूप  अरु, तुम्हरे  धुन-रूपा ।
परखत रहूँ निशि-दिन गुरु, करु दया अनूपा ।। 12।।


शब्दार्थ-प्रेम=हृदय का वह भाव जिसके कारण प्रिय व्यक्ति को बार-बार स्मरण करते हैं; बार-बार उसे देखने की इच्छा होती है; सदा उसकी निकटता चाहते हैं और स्वयं कष्ट उठाकर भी उसे सुखी देखना चाहते हैं । भक्ति=सेवा भाव, हृदय का वह भाव जिसके कारण किसी सद्गुण-सम्पन्न व्यक्ति के प्रति विश्वास, आदर, प्रेम, सेवा और पूज्यता का भाव रखते हैं । प्रेम-भक्ति=वह सेवा भाव जिसमें प्रेम निहित हो, प्रेमपूर्ण सेवा भाव । विनवौं=विनती करता हूँ, प्रार्थना करता हूँ । कर=हाथ । छोह=प्रेम, स्नेह, ममता, कृपा, दया; देखें- श्श् नाथ करहु बालक पर छोहू । सूध दूधमुख करिअ न कोहू ।।य् (रामचरितमानस, बालकांड)।  श्श् मातहु तें बढ़ि छोह करैं नित, पितहुँ तें अधिक भलाइ हे ।य्-106ठा पद्य। युग-युगान=युग-युगों तक, युग-युगों से, अनेक युगों से । (युग चार हैं-सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग ।) चहुँ खानि=चार खानियाँ, उत्पत्ति के विचार से चार प्रकार के प्राणी; जैसे-अंडज, पिडज (जरायुज), उष्मज (स्वेदज) और उद्भिज्ज (स्थावर, अंकुरज)। [अंडज=अंडे से उत्पन्न होनेवाले प्राणी; जैसे-साँप, मछली, मुर्गा, पक्षी आदि । पिडज=सीधे शरीर से उत्पन्न होनेवाले प्राणी; जैसे-मनुष्य, कुत्ता, बिल्ली आदि पशु । उष्मज=गर्मी-पसीने और मैल से अथवा फल आदि के सड़ने से उत्पन्न होनेवाले प्राणी; जैसे-खटमल, जूँ, चीलर आदि । उद्भिज्ज=भूमि से उत्पन्न होनेवाले प्राणी; जैसे-वृक्ष, गुल्म, लता आदि । अंडज भी एक तरह से पिडज ही है । पिडज का एक प्रकार है-जरायुज । जो प्राणी जरायु (झिल्ली) में लिपटा हुआ गर्भ से जन्म लेता है, उसे जरायुज कहते हैं ।,ह् भ्रमि- भ्रमि=भ्रमण कर-करके, घूम-घूमकर । भूरी=भूरि, बहुत; देखें- श्श् तातें करहि कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ।।य् (रामचरितमानस, लंकाकांड)। भक्ति-भेद= भजन-भेद, ईश्वर-भक्ति करने की युक्ति, भक्ति के प्रकार, परमात्मा की ओर चलने की रीति, भक्ति-रहस्य, भक्ति की महिमा । कमाई=उद्योग, प्रयत्न । सहाई=सहाय, सहायक, दयालु, सहारा देनेवाला । अकाशा=आकाश, अंदर का आकाश, ब्रह्मांड । सार धुन्न=सारध्वनि, सारशब्द । निज घर=अपना घर, आदि-घर, मूल-घर, परमात्म-पद । निजपन=अपनापन, अपनत्व, ममत्व, आसक्ति । जत=जितना, जो । कल्पना=विचार,  धारणा । मनसा=मन से । वाचा=वचन, वचन से । कर्मणा=कर्म से । आश=आशा; सांसारिक परिस्थितियों, वस्तुओं और प्राणियों से सुख पाने की उम्मीद, इच्छा । त्रस= भय, डर, अहित होने की संभावना से उत्पन्न दुःख । वैर=पुरानी शत्रुता, दुश्मनी, द्वेष । व (फा0)=और । नेहू=नेह, स्नेह, प्रेम, राग । मद=अहंकार, घमंड; मैं ऐसा हूँ या वैसा हूँ; मैंने यह किया या वह किया-ऐसी धारणा । लोभ= लालच, किसी दूसरे की अच्छी या उपयोगी वस्तु को देखकर उसे अपनाने या वैसी ही वस्तु कहीं से या किसी तरह प्राप्त करने की प्रबल इच्छा का होना । वेग=काम-क्रोध आदि विकारों का आवेग, आवेश, उत्तेजना । सतावै=संताप दे, दुःख दे, तंग करे, परेशान करे । भावै= अच्छा लगे । जोतस्वरूप=ज्योति-स्वरूप, प्रकाश-रूप । (दशम द्वार का श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु गुरु का एक छोटे-से-छोटा सगुण साकार प्रकाशमय रूप है ।) धुनरूपा=ध्वनि-रूप, ध्वनिमय रूप, सारशब्द । (सारशब्द गुरु का निर्गुण ध्वनिमय रूप है ।) परखत रहूँ=जाँच करता रहूँ, पहचान करता रहूँ, खोजता रहूँ । निशि-दिन=रात-दिन । अनूपा= अनुपम, उपमा-रहित, तुलना-रहित, जिसके समान दूसरा कोई अथवा कुछ नहीं हो ।
भावार्थ-हे गुरुदेव ! आप अपने चरणों की प्रेमपूर्वक सेवा करने की भावना मेरे हृदय में दीजिये । मैं हाथ जोड़कर आपसे यह भी प्रार्थना करता हूँ कि मेरे प्रति आपका जो पल-पल स्नेह बना रहता है, उसे  आप कभी नहीं हटाइये । हे गुरुदेव ! आप और भी मेरी प्रार्थनाएँ सुन लीजिये ।।1।। युग-युगों से चारो खानियों  में भ्रमण करते हुए मैंने बहुत दुःख पाया, फिर भी आज तक मैं आपके चरणों की प्रेम-भक्ति नहीं प्राप्त कर सका, इससे दूर ही रहा ।।2।। मेरा मन पल-पल माया में रमता रहता है; माया से कभी अलग नहीं होता है । आपकी भक्ति का महत्त्व मैं भूला हुआ रहता हूँ और इसीलिए रो-रोकर दुःख सहता हूँ ।।3।। हे दयालु गुरुदेव ! अब आपने दया करके मुझे भक्ति-भेद बतला दिया है और मुझ अभागे जीव के सौभाग्य को जगा दिया है ।।4।। मुझे दूसरे का और अपना भी कुछ बल नहीं है, जिससे भक्ति का उद्योग कर सकूँ । हे गुरुदेव ! भक्ति करने का बल मैं तभी पा सकता हूँ, जब आप मेरे प्रति दयालु या सहारा देनेवाले हो जाएँ ।।5।। हे गुरुदेव ! आप मुझपर ऐसी दया कीजिये, जिससे मेरी दोनों दृष्टि-धाराएँ एक होकर सुषुम्न-विन्दु (दशम द्वार) में टिक जाएँ; सुरत अन्तर की ध्वनियों में लीन हो जाए और भक्ति भाव में मन इस तरह रम जाए, जिस तरह वह माया में रम जाया करता है ।।6।। ब्रह्मज्योति जग जाए; अनहद ध्वनियाँ सुनाई पड़ने लग जाएँ; सुरत आन्तरिक शून्य में चढ़ जाए और सारशब्द में लीन होकर निज घर (परमात्म-पद) में वास करे ।।7।। सांसारिक पदार्थों में जो मेरी अपनत्व-बुद्धि है, वह मिट जाए और मन-वचन-कर्म से सुरत आपके चरणों में लीन होकर रहे ।।8।। सांसारिक पदार्थों से सुख मिलने की जो आशा है; प्रिय पदार्थों के नष्ट होने की आशंका से जो भय उत्पन्न हो रहा है; लोगों के प्रति जो वैर (शत्रुता, द्वेष) और प्रेम है-सभी समाप्त हो जाएँ और केवल एक आपके चरणों के ही प्रति मेरा प्रेम रहे ।।9।। काम, क्रोध, घमंड, लोभ आदि षट् विकारों के आवेग मुझे बार-बार परेशान नहीं करें । सभी प्रिय वस्तुओं, प्रिय व्यक्तियों, परिवार के सभी सदस्यों और संपत्तियों में भी मेरी कुछ भी आसत्तिफ़ नहीं रहे ।।10।। हे गुरुदेव ! आप अत्यन्त दयालु होकर मुझपर ऐसी ही कृपा कीजिये । मैं आपके चरणों की शरण होकर विनती करता हूँ कि आप मुझे अपना बना लीजिए ।।11।। आपके ज्योति-रूप (श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु) और ध्वनि-रूप (सारशब्द) की मैं दिन-रात परख (खोज, पहचान) करता रहूँ । हे गुरुदेव ! आप मुझपर ऐसी ही अनुपम दया कीजिये ।।12।।
टिप्पणी-1- रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ही वह माया है, जिसमें मन पल-पल रमता रहता है । 2- गुरु को छोड़कर दूसरे की आशा करने से एकनिष्ठा खत्म होती है और एकनिष्ठा के बिना मन स्थिर नहीं हो पाता । अपनी बुद्धि का भरोसा करने से अहंकार पैदा होता है, जिससे सबकुछ बिनस जाता है । 3- मन से जप-ध्यान करना, वाणी से गुणगान करना और कर्म से सेवा करना-यही मन, वचन और कर्म से गुरु में समाकर रहना है । 4- जो जीव ईश्वर की भक्ति में मन नहीं लगाकर संसार के विषय-सुखों में अत्यन्त आसक्त रहता है, वही महा अभागी है- श्श् सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहि विषय अनुरागी ।।य् (मानस, अरण्यकांड) जो सत्संग करने लगता है, उसका सौभाग्य जग जाता है; देखें- श्श् विषयों में ही मन लागे, सत्संग से हटि भागे । मोको करो सभागे, सत्संग में लगा दो ।।य् -19वाँ पद्य। 5- ज्योति-मंडल में दिखाई पड़नेवाले अनेक रंग-रूपों के बीच सम्मुख श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु गुरु या परमात्मा का छोटे-से-छोटा सगुण साकार विभूतिमान् रूप है । इसी पर सुरत को विलम्ब-पर्यन्त जमाने का अभ्यास कर लेने पर आगे शब्द-योग की साधना सरल हो जाती है-
 श्श् जौं सूर्त दल सहस में, वा त्रिकुटी महल में ।
चढ़ि जाय तहँहुँ विन्दु में, मम दृष्टि को लगा दो ।।
कोउ रूप को न देखूँ, इक बिन्दु सबमें पेखूँ ।
रिधि सिद्धि को न लेखूँ, ऐसी सुरत सिमटा दो ।।य्  (19वाँ पद्य)
6- सारशब्द परमात्मा या गुरु का निर्गुण ध्वनिमय विभूतिमान् रूप है । अनहद ध्वनियों के बीच इसकी पहचान करके इसमें सुरत को संलग्न करने पर साधक परमात्म-पद में खिच जाता है ।
(10)


।। आरती ।।
सत्य पुरुष  की  आरति  कीजै ।
हृदय-अधर को थाल सजीजै ।।1।।
दामिनि  जोति  झकाझक  जामें ।
तारे   चन्द   अलौकिक   तामें ।।2।।
आरति करत होत अति उज्ज्वल ।
ब्रह्म की जोति अलौकिक उज्ज्वल ।।3।।
सन्मुख  बिन्दु में दृष्टि  समावे ।
अचरज  आरति  देखन  पावे ।।4।।
दिव्य  चक्षु  सो  अचरज  पेखे ।
या जग-सुक्ख तुच्छ करि लेखे ।।5।।
होत  महाधुन  अनहद  केरा ।
सुनत  सुरत  सुख  लहत  घनेरा ।।6।।
सूरत   सार  शबद  में  लागी ।
पिड ब्रह्माण्ड देइ  सब  त्यागी ।।7।।
आतम  अरपि के भोग  लगावे ।
सेवक सेव्य भाव छुटि जावे ।।8।।
हम प्रभु  प्रभु  हम  एकहि  होई ।
द्वन्द्व  अरु  द्वैत  रहे  नहि  कोई ।।9।।
‘मेँही ँ’  ऐसी  आरति  कीजै ।
भव महँ जनम बहुरि नहि लीजै ।।10।।

शब्दार्थ-सत्य पुरुष=परम अविनाशी पुरुष, परम प्रभु परमात्मा; देखें- श्श् अविगत अज विभु अगम अपारा । सत्य पुरुष सतनाम ।।य् (12वाँ पद्य) आरति=आरती, पूजन के समय किसी देवमूर्त्ति या सन्त-महात्मा के सामने कपूर या घी का प्रज्वलित दीपक गोलाकार घुमाना, आरती के समय पढ़ा जानेवाला पद्य, पूजा, आराधना । हृदय अधर=योगहृदय का शून्य, आज्ञाचक्र का शून्य, आज्ञाचक्र के ऊपरी आधे भाग का आकाश जो प्रकाश-मंडल में है, अन्तराकाश, शरीर के भीतर का सूक्ष्म आकाश । (अधर=आकाश, शून्य ।) दामिनि=दामिनी (सं0 सौदामिनी), विद्युत्, बादल में चमकनेवाली बिजली । झकाझक=खूब उजला और चमकता हुआ । अलौकिक=जो इस लोक अर्थात् स्थूल जगत् का नहीं है । अति उज्ज्वल=अत्यन्त उजला, बहुत अधिक प्रकाश । सन्मुख=सम्मुख, सामने । दिव्य चक्षु=दिव्य आँख, दिव्य दृष्टि जो जाग्रत्-दृष्टि, स्वप्न-दृष्टि और मानस दृष्टि से भिन्न है और जो एकविन्दुता की प्राप्ति होने पर खुलती है तथा इसके द्वारा सूक्ष्म और स्थूल जगत् की अत्यन्त दूरस्थ वस्तु भी देखी जा सकती है । अचरज=आश्चर्य; यहाँ अर्थ है-आश्चर्यमय । पेखे=देखे, देखता है । (‘पेखना’ का अर्थ है-देखना । यह संस्कृत ‘प्रेक्षण’ का तद्भव-रूप है ।) उज्ज्वल=उजला, स्वच्छ, निर्मल । तुच्छ करि=तुच्छ (असार, व्यर्थ, बेकार, ओछे) पदार्थ की तरह । लेखे=देखता है, विचारता है, समझता है, मानता है, गिनता है । महाधुन=महाध्वनि, अत्यन्त ऊँची और तीक्ष्ण (तीव्र) ध्वनि । केरा=का । घनेरा=बहुत अधिक । पिड=स्थूल शरीर, स्थूल शरीर का दोनों आँखों के नीचे का भाग । ब्रह्माण्ड=बाह्य जगत्, आन्तरिक ब्रह्माण्ड जो कैवल्य मंडल तक है । बहुरि=फिर, लौटकर । भोग=नैवेद्य, वह खाद्य सामग्री जो देवता को चढ़ायी जाए । लहत=लाभ करता है, प्राप्त करता है । सेवक सेव्य भाव=अपने को सेवक और परमात्मा को सेव्य (सेवा करनेयोग्य) मानने का भाव । हम प्रभु=जीवात्मा और परमात्मा । द्वन्द्व=सुख-दुःख, शीत-उष्ण जैसे परस्पर-विरोधी भावों का जोड़ा, दो पदार्थों के होने का भाव। द्वैत=दो होने का भाव, अलगाव, जीव और ब्रह्म के भिन्न होने का भाव ।

भावार्थ-अपने शरीर के अन्दर सत्य पुरुष (परम अविनाशी पुरुष, परम प्रभु परमात्मा) की आरती (पूजा, उपासना) कीजिए और इसके लिए भीतर के सूक्ष्म आकाश को थाल के रूप में सजाइये ।।1।। इस सूक्ष्म आकाशरूप थाल में अत्यन्त उजला और चमकता हुआ विद्युत्-प्रकाश दिखाई पड़ता है और अलौकिक तारे तथा चन्द्रमा आदि भी ।।2।। आरती करने के समय अत्यन्त तेज प्रकाश होता है । वह प्रकाश ब्रह्म (परमात्मा) का है, जो अलौकिक और निर्मल है ।।3।। ( श्श् निर्मल जोत जरत घट माहीं ।य्-संत तुलसी साहब, हाथरस) सामने के श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु में (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़नेवाले श्वेत ज्योतिर्मय विन्दु में) सिमटी हुई दृष्टि-धार को समाविष्ट करने पर (एकमेक करने पर) ही अत्यन्त आश्चर्यमयी आरती देखने में आती है ।।4।। यह अत्यन्त आश्चर्यमयी आरती दिव्य दृष्टि से देखने में आती है और जो इसको देख लेता है, वह इस स्थूल जगत् के समस्त सुखों को तुच्छ पदार्थ-की तरह समझने लगता है ।।5।। आरती करते समय अत्यन्त ऊँची अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) भी होती हैं, जिनका श्रवण करती हुई सुरत बहुत अधिक सुख प्राप्त करती है ।।6।। इन अनहद ध्वनियों के बीच जब सुरत सारशब्द (अनाहत नाद) में संलग्न हो जाती है, तब वह पिड (स्थूल शरीर) और आन्तरिक ब्रह्माण्ड के सब मंडलों (सूक्ष्म, कारण, महाकारण और कैवल्य मंडल) से ऊपर उठकर शब्दातीत पद में पहुँच जाती है ।।7।। यहाँ सुरत (चेतन आत्मा) अपने-आपको समर्पित करके  परमात्मा को भोग लगाती है (आत्मसमर्पणरूप नैवेद्य चढ़ाती है)। इसका फल यह होता है कि सुरत (जीवात्मा) और परमात्मा के बीच पहले से आ रहा सेवक और सेव्य का भाव (संबंध) सदा के लिए छूट जाता है ।।8।। अब जीवात्मा और परमात्मा-दोनों एक ही हो जाते हैं-दोनों के बीच द्वन्द्व-द्वैत (अलगाव) कुछ भी नहीं रह जाता ।।9।। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि हे साधको ! ऐसी आरती (पूजा या भक्ति) करो, जिससे कि संसार में फिर जन्म नहीं ले सको ।।10।।
टिप्पणी-1- पूजन के समय किन्हीं महापुरुष या देवमूर्त्ति के समक्ष कर्पूर या घी का प्रज्वलित दीपक गोलाकार घुमाना आरती करना कहा जाता है । आरती करने का लक्ष्य है-दीपक के प्रकाश में महापुरुष या देवमूर्त्ति के संपूर्ण अवयवों के सम्यक् रूप से दर्शन करना । आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वÐाभरण, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, परिक्रमा और वंदना-ये पूजन के अंग हैं । इस तरह हम देखते हैं कि आरती पूजन का ही एक अंग है । संतों ने ‘आरती’ शब्द का प्रयोग पूजन अथवा भक्ति के लिए भी किया है । संतों की पूजा मानसिक भी होती है, जिसमें पूजा की सारी सामग्री मनोमयी (मन-ही-मन की बनी हुई) होती है । सन्त यह भी मानते हुए दीखते हैं कि दृष्टियोग और शब्दयोग के द्वारा साधक अपने अन्दर जो कुछ भी प्रत्यक्ष करता है, उसके लिए वही परमात्म-पूजन की सर्वश्रेष्ठ सामग्री बन जाता है । दृष्टियोग और शब्दयोग करना सन्तों की दृष्टि में परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ पूजा है । 2- भक्त अपने को परमात्मा से भिन्न समझकर और अपने को सेवक तथा परमात्मा को सेव्य (स्वामी) समझकर भक्ति आरंभ करता है। भक्ति पूरी करके जब वह परमात्मपद में पहुँच जाता है, तब उसके और परमात्मा के बीच का सेवक-सेव्य भाव मिट जाता है और दोनों में एकता स्थापित हो जाती है। 3- 10वें पद्य में चौपाई के चरण हैं ।

आरति संग सतगुरु के कीजै ।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।  
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई ।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।  
गगन थाल रवि शशि फल-फूला ।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।  
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल ।
पोहप माल हिय हार गुहीजै ।।4।।  
सेत   पान   मिष्टान्न   मिठाई ।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।  
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा ।
मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।  
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा ।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।  
निर्मल  जोत  जरत  घट  माहीं ।
देखत दृि" दोष सब छीजै ।।8।।  
अधर-धार अमृत बहि आवै ।
सतमत द्वार अमर रस भीजै ।।9।।  
पी-पी  होय  सुरत मतवाली ।
चढ़ि-चढ़ि उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट  भान  छवि  तेज  उजाली ।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै ।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा ।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै ।।13।।


शब्दार्थ
-चास=बालकर । मूल=आरंभ । कपूर=जल्द जल उठनेवाला एक सुगंधित पदार्थ; यहाँ अर्थ है-ज्योतिर्मय विन्दु । अच्छत=अक्षत, बिना टूटा हुआ चावल जो पूजा में चढ़ाया जाता है । मुक्ताहल=मुक्ताफल, मोती । पोहप=पुहप, पुष्प, फूल । गुहीजै=गूँथ लीजिये । सेत=श्वेत, उजला; यहाँ अर्थ है-प्रकाश (अंतःप्रकाश)। मिष्टान्न (मिष्ट+अन्न)=रुचिकर खाद्य पदार्थ । मिठाई=खाने की कोई मीठी चीज । झलक=प्रकाश । झाँझ=झाल । मजीरा= श्श् बजाने के लिए काँसे की छोटी कटोरियों की जोड़ी, ताल ।य् (संक्षिप्त हिन्दी शब्द-सागर) सर्वसुगंध=इन्द्रिय-घाटों में बिखरी हुई समस्त चेतन-धाराएँ । (जैसे फूल का सार सुगंध है, उसी तरह शरीर का सार चेतन-धार है । इसीलिए चेतनधार ‘सुगंध’ कही गयी है ।) मधुकर=भौंरा; यहाँ अर्थ है-सुरत या मन । कमल=मंडल, अंदर का दर्जा या स्तर । केलि=क्रीड़ा, खेल । धीजै=धीरज धरता है, प्रसन्न होता है, संतुष्ट होता है, स्थिर होता है । अधर धार=आंतरिक आकाश की ज्योति और शब्द की धाराएँ । अमृत=चेतन तत्त्व । सतमत द्वार=सत्य धर्म  का द्वार, दशम द्वार । (सतमत=सत्य धर्म; देखें- श्श् तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।य्-संत तुलसी साहब) उमगि=उमंग-युक्त होकर, आनन्दित होकर । अमीरस=अमृत रस, ज्योति और नाद की प्राप्ति से उत्पन्न आनंद । रीझै=रीझता है, प्रसन्न होता है, संतुष्ट होता है । कोट=कोटि, करोड़ । छवि=सौंदर्य । तेज (फाú)=तीव्र । अलख=जो देखा न जा सके, अरूप; यहाँ अर्थ है-सारशब्द, कैवल्य मंडल-सतलोक । लाग लगीजै=लाग लगा लीजिये, संबंध स्थापित कर लीजिये । अधर=गगन, आंतरिक आकाश, ब्रह्मांड । अगम रस=वह आनंद जो किसी इन्द्रिय से नहीं-चेतन आत्मा से प्राप्त किया जा सके । दमकत=दमकता है, चमकता है । कड़क-कड़क=घोर शब्द करते हुए । अलल (संú अलज)=एक पक्षी का नाम । तीजै=तज दीजिये, छोड़ दीजिये; तीनों ।
भावार्थ
-(सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दाें में)- श्श् सद्गुरु के संग प्रभु परमात्मा की आरती कीजिये और अंतर में ज्योति होती है, उसे देख लीजिये ।।1।। 
तन के पाँच तत्त्वों की अग्नि को जला, दीपक बालकर प्रकाश कर लीजिये । इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान-अभ्यास करके पाँच तत्त्वों के भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाशों को देखिये और इसके अनन्तर दीपक-टेम की ज्योति का भी दर्शन कीजिये ।।2।।
 शून्य के थाल में सूर्य और चन्द्र फल-फूल हैं और इस पूजा के मूल या आरंभ में कपूर अर्थात् श्वेत ज्योतिर्विन्दु का कलश-स्थापन कीजिये ।।3।। 
अंतराकाश में दर्शित सब तारे-रूप मोतियों का अच्छत (अरवा चावल, जिसका नैवेद्य पूजा में चढ़ाते हैं) और ऊपर कथित फूलों का हार गूँथकर हृदय में पहन लीजिये अर्थात् अपने अंदर में उन फूलों का सप्रेम दर्शन कीजिये ।।4।। 
पान, मिठाई, मिष्टान्न, चंदन, धूप और दीप-सब-के-सब उजले यानी प्रकाश हैं ।।5।। 
झलक अर्थात् प्रकाश में झाँझ, मजीरा और मृदंग की मीठी ध्वनियों को मीन-मन से अर्थात् भाठे से सिरे (नीचे से ऊपर-स्थूल से सूक्ष्म) की ओर चढ़नेवाले मन से सुनिये ।।6।।
शरीर में बिखरी हुई सुरत की सब धाररूप सुगंध आकाश में उठती हुई चलती है और उस मंडल में वह भ्रमर-सदृश खेलती हुई अनहद ध्वनि से संतुष्ट होती है ।।7।। 
शरीर के अंदर पवित्र ज्योति जलती है । दृष्टि से दर्शन होते ही सब दोष नाश को प्राप्त होते हैं ।।8।। 
अधर (आकाश) की धारा में अमृत बहकर आता है, उस धारा में सत्य धर्म के द्वार पर आरती करनेवाला अभ्यासी अमर-रस में भींजता है ।।9।। 
उस अमर-रस को पीकर सुरत मस्त होती है और विशेष-से-विशेष चढ़ाई करके और उल्लसित होकर अमृत-रस में रीझती है ।।10।। 
करोड़ों सूर्य के सदृश प्रकाशमान सौंदर्य प्रकाशित है, अलख (सारशब्द) के पार (शब्दातीत पद) को लखकर संबंध लगा लीजिये ।।11।। 
सुरत को क्षण-क्षण अधर पर रक्खे, तो गुरु-प्रसाद से अगम रस पीवै ।।12।। 
तुलसी साहब कहते हैं कि गुरुधाम (परम पुरुष पद) चमकता हुआ ध्वनित होता है । हे सुरत ! तुम अलल पक्षी की भाँति उलटकर अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख होकर तीनों शरीरों को छोड़ दो ।।13।।

टिप्पणी
-1- मीन भाटे से सिरे की ओर चढ़ जाता है । जो मन दृष्टियोग के अभ्यास के द्वारा पिड (नीचे-स्थूलता) से ब्रह्मांड (ऊपर-सूक्ष्मता) में पहुँच जाता है, वही ‘मन-मीन’ अर्थात् मीनवृत्तिवाला मन है; वही प्रकाश-मंडल में होनेवाली अनहद ध्वनियों को सुन पाता है । 2- कबीर-पंथ की एक पुस्तक ‘अनुराग-सागर’ के अनुसार, अलल पक्षी आकाश में बहुत ऊँचाई पर अंडा देता है । वह अंडा नीचे गिरते-गिरते फूट जाता है, उससे बच्चा निकल आता है । नीचे गिरते-गिरते ही उस बच्चे की आँखें खुल जाती हैं और पंख उग आते हैं, तब वह उलटकर अपनी माता के पास चला जाता है । 3- बाहर में पूजा करने के लिए थाल, प्रज्वलित दीपक, फल-फूल, कलश, अच्छत, पुष्पमाल, पान, मिष्टान्न, मिठाई, चंदन, धूप और झाँझ, मजीरे, मृदंग आदि वाद्य यंत्रें के वादन की व्यवस्था करनी पड़ती है; परंतु दृष्टियोग के द्वारा अंतर्मुख हुए साधक के लिए बाह्य पूजा की इन सब चीजों का कोई अर्थ नहीं रह जाता । संत तुलसी साहब ने अपनी इस आध्यात्मिक आरती में यही बतलाया है। 4- आरती के इस पद्य के प्रत्येक चरण में 32 मात्रएँ हैं; 16-16 पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण।



शब्दार्थ-
दृष्टि युगल कर=दोनों दृष्टि-किरणों को, दोनों दृष्टि-धारों को । सूक्ष्म अति=अत्यन्त छोटा । उज्ज्वल=उजला, प्रकाशमय । जगमग=प्रकाशित । रूप ब्रह्मांड=सूक्ष्म जगत् जहाँ तक ही रंग-रूप दिखाई पड़ते हैं , प्रकाश-मंडल । काया गढ़=शरीररूपी किला । भव=संसार, जन्म-मरण का चक्र । भ्रम=अज्ञानता, मिथ्या ज्ञान, माया । भेद=द्वैतता, अनेकता, जीव और ब्रह्म की भिन्नता का भाव । मल=अनात्म तत्त्व, असार तत्त्व, विकार, दोष । छीजै=क्षय कीजिये, धीरे-धीरे घटाइये, नष्ट कीजिये । भव खंडन=संसार को अर्थात् आवागमन के चक्र को नष्ट करनेवाला । निर्मल (निः+मल)=मल-रहित, पवित्र, पवित्र करनेवाला । अमृत रस=अक्षय आनंद, अविनाशी सुख, परमात्मा का आनन्द ।
भावार्थ-
अपने शरीररूपी मंदिर में ही आरती अर्थात् ईश्वरोपासना कीजिये । इसके लिए दोनों आँखों की दोनों किरणों को अर्थात् दोनों दृष्टि-धारों को एक करके सामने (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में) स्थिर कीजिये ।।1।
 सिमटी हुई दृष्टि-धार को सामने स्थिर करने पर अत्यन्त छोटा ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आएगा । ज्योतिर्मय विन्दु के साथ-साथ और भी अलौकिक प्रकाश के अनेक रंग-रूप देखने में आएँगे ।।2।।
रूप-ब्रह्मांड (सूक्ष्म जगत्) विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति-रूपों से सतत प्रकाशित (शोभायमान) हो रहा है । उन विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति-रूपों के बीच सामने के ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान करते हुए ज्योति-मंडल का परित्याग कर दीजिये ।।3।।
दृष्टियोग से सुरत-शब्द-योग आसान है । सुरत-शब्द-योग का बारंबार (तत्परतापूर्वक) अभ्यास करके अनहद ध्वनियों के बीच सारशब्द को पकड़ लीजिये ।।4।। 
दृष्टियोग और शब्दयोग-इन दोनों युक्तियों से शरीररूपी किले (जेल-रूपी शरीर अर्थात् दृढ़ बंधन-रूप शरीर) का त्याग करके आवागमन के चक्र को, अज्ञानता (आत्मज्ञान-विहीनता) को, द्वैतता (अपने और परमात्मा के बीच बने हुए अंतर) को और सभी मनोविकारों को नष्ट कर डालिये ।।5।। 
इस तरह की जानेवाली आरती (उपासना) जड़ावरणों से छुड़ाकर निर्मल करनेवाली (शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित करनेवाली) और जन्म-मरण के चक्र से छुड़ानेवाली है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि ऐसी आरती करके अमृृत रस पीजिये अर्थात् अविनाशी आनन्द (परमात्मा का आनन्द) प्राप्त कीजिये ।।6।।

टिप्पणी
1- मानव-शरीर ही परमात्मा का उसके द्वारा निर्मित सबसे सुंदर मंदिर है । इसलिए परमात्मा की उपासना अपने शरीर के ही अंदर करनी चाहिये । इसके लिए कोई बाहरी उपचार या बाहरी भ्रमण करना व्यर्थ है । 2- 139वें पद्य का प्रथम चरण चौपाई के दो चरणों से मिलकर बना हुआ है और नीचे के प्रत्येक चरण में 32 मात्रएँ हैं; 16-16 पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण ।

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