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शब्दार्थ-प्रथमहि=प्रथम ही, पहले ही, प्रारंभ में ही । धारो=धारण करो, धरो, करो, जमाओ, स्थिर करो, स्थापित करो । दृष्टि रेख=रेखा के समान पतली दृष्टिधार । सुखमन= सुषुम्ना, सुषुम्नविन्दु, दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । झलकै=चमकता है, दिखाई पड़ता है । लहै=लहता है, प्राप्त करता है । तिल=तिल से भी बहुत सूक्ष्म ज्योतिर्मय विन्दु । दशमी द्वारा=दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । अनहद शब्द= जड़ात्मक मंडलों में उनके कंपनों से विविध प्रकार की होनेवाली ध्वनियाँ । धुन सत=सद्ध्वनि, सारशब्द । लौ=ध्यान । भवजल=भव-जलनिधि, संसार-समुद्र । साँची=सच्ची । राँची=रंजित रहनेवाला, डूबा हुआ रहनेवाला, रचा-पचा रहनेवाला, संलग्न, अनुरक्त, लीन, तत्पर, मग्न । (राँचना=रँगना, अनुरक्त होना, प्रेम करना; जैसे-तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ।। -मानस, बालकाण्ड ।
भावार्थ-पहले गुरु-नाम का मानस जप करके गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करो । इससे सुरत शुद्ध हो जाएगी और फिर दृष्टियोग करने पर ज्योतिर्मय विन्दु का प्रत्यक्षीकरण हो जाएगा ।।1।। दृष्टियोग करने के लिए अपनी दोनों आँखें बंद करके उनके मध्य सामने अंधकार में एकटक देखते रहो, इससे कभी-न-कभी दोनों दृष्टि-रेखाएँ एक विन्दु पर मिल जाएँगी ।।2।। और सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में तिल (ज्योतिर्मय विन्दु) और एक तारा दिखाई देंगे । इसलिए तुम ख्याल से दशम द्वार कहलानेवाले सुखमन की ओर एकटक देखते रहो ।।3।। प्रकाश-मंडल में आश्चर्यमय प्रकाश विद्यमान है और शब्द-मंडल में अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक प्रकृति-मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) होती हैं ।।4।। अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि (सारशब्द) में ध्यान लगाना ही भवसागर तरने का सबसे उत्तम उपाय है अथवा अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि में ध्यान लगाओ-संसार-सागर तरने के लिए ये सब (मानस जप-सहित मानस ध्यान, दृष्टियोग और शब्दयोग) ही उपाय हैं ।।5।। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि संसार-समुद्र तरने की सरल और सच्ची युक्ति (उपाय) वही प्राप्त करता है, जो दिन-रात गुरु-सेवा में रचा-पचा (अनुरक्त, लीन, संलग्न या डूबा हुआ) रहता है ।।6।।
टिप्पणी-1- गुरुमंत्र का मानस जप करना भी एक प्रकार का ध्यान ही है; क्योंकि मानस जप में जप के शब्दों का बारंबार स्मरण करते हैं । मानस जप से गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है । पद्य में पहले गुरु-ध्यान करने का आदेश दिया गया है । यहाँ गुरु-ध्यान के ही अन्तर्गत गुरुमंत्र का मानस जप करना भी ले लिया गया है । 97वें पद्य में मानस ध्यान करने के पूर्व मानस जप करने का आदेश तो है ही; देखें- श्श् अति पावन गुरुमंत्र, मनहि मन जाप जपो । उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।य् 2- दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं । इसकी धार प्रकाशमयी होती है और जाग्रत्काल में आँखों के खुले रहने पर इनके दोनों तिलों-होकर बहिर्मुख होती है । रेखा के लिए कहा जाता है कि वह अनेक विन्दुओं से बनी होती है; उसमें सिर्फ लंबाई होती है; चौड़ाई अथवा मुटाई नहीं और दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है । दृष्टिधार पूर्णतः रेखा के समान है । जब दोनों दृष्टि-रेखाएँ दृष्टियोग का अभ्यास करने के क्रम में निर्दिष्ट स्थान पर अन्दर में जुड़ जाती हैं, तब ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है । 3- 94वें पद्य में कहा गया है कि दोनों दृष्टिधारों को आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में जोड़ने पर ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है और 119वें पद्य में लिखा गया है कि सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में एक तारा दरसता है । इससे जानने में आता है कि ज्योतिर्मय विन्दु और एक तारा-दोनों आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़ते हैं । प्रस्तुत पद्य में तो स्पष्टतः कहा ही गया है कि सुखमन में तिल और तारा दिखाई पड़ते हैं । 4- 58वें पद्य के कुछ चरण चौपई (जयकरी) छन्द के हैं और कुछ चरण सखी छन्द के । चौपई छन्द के प्रत्येक चरण में 15-15 मात्रएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु । सखी छन्द के प्रत्येक चरण में 14-14 मात्रएँ होती हैं और अन्त में गुरु-गुरु-गुरु या लघु-गुरु-गुरु ।
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