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शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

                      



  भजन नंबर 105

सतगुरु चरण टहल नित करिये नर तन के फल एहि है। युग-युग जग में सोवत बीते सतगुरु दिहल जगाय हे ॥ १ ॥ आँधरि आँखि सुझत रहे नाहीं थे पड़े अन्ध अचेत हे । करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे ॥२॥ भा परकाश मिटल अँधियारी सुक्ख भएल बहुतेर हे । गुरु किरपा की कीमत नाहीं मिटल चौरासी फेर हे ॥३॥ धन धन धन्य बाबा देवी साहब सतगुरु बन्दी छोर हे । तुम सम भेदि न नाहिं दयालू 'मेँहीँ' कहत कर जोरि हे ॥४॥




 यह भजन महर्षि मेंही द्वारा रचित पदावली से लिया गया है 

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गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

प्रथमहिं धारो गुरु को ध्यान | हो स्तुति निर्मल हो बिंदु ज्ञान || १ || पदावली भजन नंबर ५८


(58)

                    
शब्दार्थ-प्रथमहि=प्रथम ही, पहले ही, प्रारंभ में ही । धारो=धारण करो, धरो, करो, जमाओ, स्थिर करो, स्थापित करो । दृष्टि रेख=रेखा के समान पतली दृष्टिधार । सुखमन= सुषुम्ना, सुषुम्नविन्दु, दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । झलकै=चमकता है, दिखाई पड़ता है । लहै=लहता है, प्राप्त करता है । तिल=तिल से भी बहुत सूक्ष्म ज्योतिर्मय विन्दु । दशमी द्वारा=दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । अनहद शब्द= जड़ात्मक मंडलों में उनके कंपनों से विविध प्रकार की होनेवाली ध्वनियाँ । धुन सत=सद्ध्वनि, सारशब्द । लौ=ध्यान । भवजल=भव-जलनिधि, संसार-समुद्र । साँची=सच्ची । राँची=रंजित रहनेवाला, डूबा हुआ रहनेवाला, रचा-पचा रहनेवाला, संलग्न, अनुरक्त, लीन, तत्पर, मग्न । (राँचना=रँगना, अनुरक्त होना, प्रेम करना; जैसे-तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ।। -मानस, बालकाण्ड ।
भावार्थ-पहले गुरु-नाम का मानस जप करके गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करो । इससे सुरत शुद्ध हो जाएगी और फिर दृष्टियोग करने पर ज्योतिर्मय विन्दु का प्रत्यक्षीकरण हो जाएगा ।।1।। दृष्टियोग करने के लिए अपनी दोनों आँखें बंद करके उनके मध्य सामने अंधकार में एकटक देखते रहो, इससे कभी-न-कभी दोनों दृष्टि-रेखाएँ एक विन्दु पर मिल जाएँगी ।।2।। और सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में तिल (ज्योतिर्मय विन्दु) और एक तारा दिखाई देंगे । इसलिए तुम ख्याल से दशम द्वार कहलानेवाले सुखमन की ओर एकटक देखते रहो ।।3।। प्रकाश-मंडल में आश्चर्यमय प्रकाश विद्यमान है और शब्द-मंडल में अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक प्रकृति-मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) होती हैं ।।4।। अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि (सारशब्द) में ध्यान लगाना ही भवसागर तरने का सबसे उत्तम उपाय है अथवा अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि में ध्यान लगाओ-संसार-सागर तरने के लिए ये सब (मानस जप-सहित मानस ध्यान, दृष्टियोग और शब्दयोग) ही उपाय हैं ।।5।। सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि संसार-समुद्र तरने की सरल और सच्ची युक्ति (उपाय) वही प्राप्त करता है, जो दिन-रात गुरु-सेवा में रचा-पचा (अनुरक्त, लीन, संलग्न या डूबा हुआ) रहता है ।।6।।
टिप्पणी-1- गुरुमंत्र का मानस जप करना भी एक प्रकार का ध्यान ही है; क्योंकि मानस जप में जप के शब्दों का बारंबार स्मरण करते हैं । मानस जप से गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है । पद्य में पहले गुरु-ध्यान करने का आदेश दिया गया है । यहाँ गुरु-ध्यान के ही अन्तर्गत गुरुमंत्र का मानस जप करना भी ले लिया गया है । 97वें पद्य में मानस ध्यान करने के पूर्व मानस जप करने का आदेश तो है ही; देखें- श्श् अति पावन गुरुमंत्र, मनहि मन जाप जपो । उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।य् 2- दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं । इसकी धार प्रकाशमयी होती है और जाग्रत्काल में आँखों के खुले रहने पर इनके दोनों तिलों-होकर बहिर्मुख होती है । रेखा के लिए कहा जाता है कि वह अनेक विन्दुओं से बनी होती है; उसमें सिर्फ लंबाई होती है; चौड़ाई अथवा मुटाई नहीं और दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है । दृष्टिधार पूर्णतः रेखा के समान है । जब दोनों दृष्टि-रेखाएँ दृष्टियोग का अभ्यास करने के क्रम में निर्दिष्ट स्थान पर अन्दर में जुड़ जाती हैं, तब ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है । 3- 94वें पद्य में कहा गया है कि दोनों दृष्टिधारों को आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में जोड़ने पर ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है और 119वें पद्य में लिखा गया है कि सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में एक तारा दरसता है । इससे जानने में आता है कि ज्योतिर्मय विन्दु और एक तारा-दोनों आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़ते हैं । प्रस्तुत पद्य में तो स्पष्टतः कहा ही गया है कि सुखमन में तिल और तारा दिखाई पड़ते हैं । 4- 58वें पद्य के कुछ चरण चौपई (जयकरी) छन्द के हैं और कुछ चरण सखी छन्द के । चौपई छन्द के प्रत्येक चरण में 15-15 मात्रएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु । सखी छन्द के प्रत्येक चरण में 14-14 मात्रएँ होती हैं और अन्त में गुरु-गुरु-गुरु या लघु-गुरु-गुरु ।


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बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

#६७ नोकते सफ़ेद सन्मुख, झलके झलझली | संत महर्षि मेँहीँ भजन padawali bhajan 67

(67)



शब्दार्थ-
नोकते=नुक्ता, नुक्तः (अरबी), विन्दु, चिह्न । सफेद (फारसी सुफैद)=श्वेत, उजला । झलाझली=झलाझल, चमकता हुआ, प्रकाशमान । शहरग (फारसी शाहरग)=सबसे बड़ी रग, सबसे बड़ी नाड़ी, सुषुम्ना नाड़ी; यहाँ अर्थ है-सुखमन, सुषुम्न-विन्दु, दशम द्वार जहाँ सुषुम्ना नाड़ी सिमटकर एकविन्दुता प्राप्त करती है । (शाह=बादशाह, राजा, सर्वश्रेष्ठ) नजर (अरबी)=दृष्टि । राह (फारसी)=मार्ग, युक्ति, उपाय । असली (अरबी अस्ल)=असल, सच्चा । और=अन्य, दूसरा । नकली (अरबी)=बनावटी, झूठा, अस्वाभाविक, असार, खोटा । शान्ति=मन की स्थिरता । आन=अन्य, दूसरा । मद=घमंड । मान=आदर पाने की भावना । सोई=वही । राज (फाú)=भेद, रहस्य, मर्म, युक्ति । दाँ (फारसी प्रत्यय)=जाननेवाला । सिवा (अरबी- फारसी)=अतिरिक्त, अलावा, छोड़कर । दीन=नम्र, अहंकार-रहित । सुमति=सुबुद्धि, सात्त्विकी बुद्धि, अच्छा विचार, अच्छा ज्ञान ।
दोनों आँखों के मध्य और नाक के आगे आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में श्वेत विन्दु चमकता हुआ दिखाई पड़ता है । शहरग कहलानेवाले आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु के उस श्वेत विन्दु पर अपनी सिमटी हुई दृष्टिधार को स्थिर करके मन की चंचलता मिटा डालो ।।1।।
सन्तों ने मन की स्थिरता प्राप्त करने की सच्ची युक्ति आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में सिमटी हुई दृष्टिधार को स्थिर करना (दृष्टियोग करना अर्थात् ध्यानयोग करना) ही बतलाया है । जो मन की वास्तविक स्थिरता प्राप्त करना चाहे, वह दृष्टियोग (ध्यानयोग) को अपनाकर दूसरी अस्वाभाविक युक्ति-हठयोग को छोड़ दे ।।2।।
यह सच्ची युक्ति वही कोई जान पाता है, जो युक्ति जाननेवाले किसी गुरु की शरण ग्रहण करता है; उसके अतिरिक्त दूसरा वह कोई नहीं, जो अहंकार और आदर-प्रतिष्ठा पाने का मार्ग अपनाये हुए है ।।3।। 
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि जिसने अत्यन्त नम्र होकर (अत्यन्त अहंकार-रहित होकर) सत्संग करने की सुबुद्धि अपना ली है अथवा सत्संग और सुबुद्धि (अच्छे विचार) को अपना लिया है, वस्तुतः उसी ने अपने को गुरु-शरण में कर लिया है ।।4।।


टिप्पणी-
1- हठयोग में पूरक, कुंभक और रेचक क्रिया के द्वारा साँस को नियंत्रित करके मन को वशीभूत करने का ख्याल रखा जाता है; परन्तु इसमें मन पूर्णतः वशीभूत नहीं हो पाता और इस तरह श्वास-प्रश्वास का निरोध करना स्वाभाविक भी नहीं है । मन का पूर्ण वशीकरण ध्यानयोग (राजयोग) के ही द्वारा हो पाता है । ध्यानयोग में इच्छा का क्रमशः त्याग करने का अभ्यास करने के साथ-साथ मन को एक तत्त्व पर जमाने का अभ्यास किया जाता है । इसमें साँस अपने-आप बन्द हो जाती है और मन भी पूर्ण रूप से वशीभूत हो जाता है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि मनोनिरोध के लिए हठयोग की क्रियाओं के द्वारा साँस का निरोध न करके ध्यानयोग के द्वारा दृष्टि को स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए; क्योंकि मन पर साँस की अपेक्षा दृष्टि का अधिक प्रभाव पड़ता है । वे इस बात को समझाते हुए कहते हैं कि जाग्रत् और स्वप्न में दृष्टि और साँस के साथ-साथ मन भी चंचल रहता है; परन्तु सुषुप्ति अवस्था में साँस के चंचल रहने पर भी दृष्टि के स्थिर रहने पर मन भी स्थिर रहता है । इसलिए दृष्टि को स्थिर कर लेने पर साँस के चलते रहने पर भी मन स्थिर हो जाएगा । 
2- विषयों में लगे रहने पर ही मन चंचल रहता है । दृष्टियोग की पूर्णता होने पर मन अन्तर्मुख हो जाता है और बाह्य विषयों से उसका लगाव छूट जाता है, इस कारण उसकी चंचलता दूर हो जाती है; परन्तु उसकी  विषय-सुख  की  चाहना  तो  नाद-ध्यान की पूर्णता होने पर ही छूटती है । 
3- अहंकारी किसी से कुछ सीखने का पात्र नहीं बन पाता । 
4- अहंकार और मान-प्रतिष्ठा पाने का मार्ग पकड़ने पर मन अन्तर्मुख नहीं हो पाता-बहिर्मुख ही रहता है । 5- जो अत्यन्त अहंकार-रहित है और सत्संग का अवलंब लिये हुए है, वही गुरु की शरण में है । 6- सूफी महात्मा दशम द्वार को ‘शहरग’ कहा करते हैं । 7- इस 67वें पद्य में उपमान छन्द के चरण हैं ।


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बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

भजु मन सतगुरु दयाल, गुरु दयाल प्यारे ।। 1 ।। Padawali bhajan 85


(85)
भजु मन सतगुरु दयाल, गुरु दयाल प्यारे ।। 1 ।।
गुरु पद को बड़ प्रताप, भक्तन को हरत ताप,
अति कराल काल काँप, अस प्रभाव न्यारे ।।2।।
गुरु गुरु अति सुखद जाप, जापक जन हरत ताप,
गुरु ही सुखरूप आप, अमित गुणन धारे ।।3।।
गुरु गुरु सब जाप भूप, अनुपम सत शान्ति रूप,
उपमा में अति अनूप, दायक फल चारे ।।4।।
गुरु गुरु जप गुरु दयाल, गुरु दयाल गुरु दयाल,
निशदिन गुरु गुरु दयाल, ‘मेँहीँ’ उर धारे ।।5।।




शब्दार्थ-
गुरु पद=गुरु के चरण, गुरु का स्थूल रूप । प्रताप=महिमा, प्रभाव, यश । ताप=कष्ट, दुःख, संकट । हरत=हर लेता है, नष्ट कर देता है । कराल=भयंकर । न्यारे=न्यारा, विलक्षण, अनोखा । जापक=जप करनेवाला । सुखरूप=सुखस्वरूप, सुखमय, सच्चे सुख से पूर्ण । गुणन=सद्गुणों को, प्रभावों को, शक्तियों को । भूप=राजा, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम । शान्तिरूप=शान्ति प्रदान करनेवाला । उपमा=किसी वस्तु के समान दूसरी किसी वस्तु को बताना, उपमान-वह वस्तु जिसके समान कोई दूसरी वस्तु बतायी जाय । अनूप=अनुपम, उपमा-रहित । फल चारे=चार फल (पुरुषार्थ)-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । उर=हृदय । अमित=असीम, अनन्त, असंख्य ।
भावार्थ-हे मेरे प्यारे मन ! परम दयालु सद्गुरु की भक्ति करो ।।1।।
गुरु-चरणों के ध्यान (गुरु के देखे हुए स्थूल रूप के मानस ध्यान) की बड़ी महिमा है । वह भक्तों के कष्टों को हर लेता है । गुरु के भय से अत्यन्त भयंकर काल भी काँपता है, गुरु का ऐसा विलक्षण प्रभाव है ।।2।। 
गुरुनाम का जप अत्यन्त सुखदायक है, वह जप करनेवालों के संकटों को हर लेनेवाला है । ऐसा क्यों न हो, स्वयं गुरु ही जो अपने आपमें सुख-स्वरूप और अनन्त सद्गुणों को धारण करनेवाले हैं अथवा ‘गुरु’ नाम स्वयं सुखस्वरूप गुरु ही है और अमित प्रभावों को धारण करनेवाला है ।।3।। 
गुरुनाम का जप अन्य सभी मन्त्रें के जपों से श्रेष्ठ, उपमा-रहित तथा सच्ची शान्ति प्रदान करनेवाला है । इसकी उपमा (उपमान) खोजने पर पता चलता है कि यह अत्यन्त उपमा-रहित (अद्वितीय) है अर्थात् गुरुमंत्र की बराबरी का दूसरा कोई मंत्र खोजने पर एकदम नहीं मिलता । इसका जप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारो फलों (पुरुषार्थों) को देनेवाला है ।।4।। 
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि गुरुनाम का सदा जप करते रहो और दयालु गुरु की स्थूल मूर्त्ति को भी हृदय में सदा धारण किये रहो अर्थात् उनकी स्थूल मूर्त्ति का भी हृदय में सदा ध्यान करते रहो ।।5।।

टिप्पणी-
1- किसी नाम की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुणवत्ता आदि उसके नामी की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुणवत्ता तथा जापक की श्रद्धा पर निर्भर करती है । संसार में राम-कृष्ण आदि अवतारी पुरुषों ने भी गुरु को सर्वोच्च स्थान देेकर उन्हें सम्मानित किया । गुरु के बिना किसी का काम नहीं चलता । देवी-देवता, मानव-दानव और दुष्ट लोगों के भी गुरु होते हैं । गुरु त्रिदेवों और परमेश्वर से भी बड़े माने गये हैं । इसलिए गुरुमंत्र सभी मंत्रें से श्रेष्ठ है । 
2- गुरुनाम जापक के हृदय में गुरु के रूप और गुणों को ला उपस्थित करता है । इसीलिए गुरुनाम गुरु का रूप कहा जाता है । नाम और नामी अभिन्न हैं- श्श् गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।य् (मानस, बालकाण्ड)। 
3- गुरुनाम का जप चारो पुरुषार्थों को प्राप्त करानेवाली शब्द-साधना की जड़ है । 
4- 85वें पद्य का प्रथम चरण कुण्डल छन्द का है और अन्य सभी चरण हरिप्रिया छन्द के । 


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शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान Pratamhi dharo guru ko dhyan Santmat Padawali Bhajan no 58



(58)
प्रथमहि धारो गुरु को ध्यान ।
हो स्त्रुति निर्मल हो बिन्दु ज्ञान ।।1।।
दोउ नैना बिच सन्मुख देख ।
इक बिन्दु मिलै दृि" दोउ रेख ।।2।।
सुखमन झलकै तिल तारा ।
निरख  सुरत दशमी  द्वारा ।।3।।
जोति मण्डल में अचरज जोत ।
शब्द मण्डल अनहद शब्द होत ।।4।।
अनहद में धुन सत लौ लाय ।
भव जल तरिबो यही उपाय ।।5।।
‘मेँहीँ’  युक्ति  सरल  साँची ।
लहै  जो  गुरु-सेवा  राँची ।।6।।


शब्दार्थ-प्रथमहि=प्रथम ही, पहले ही, प्रारंभ में ही । धारो=धारण करो, धरो, करो, जमाओ, स्थिर करो, स्थापित करो । दृष्टि रेख=रेखा के समान पतली दृष्टिधार । सुखमन= सुषुम्ना, सुषुम्नविन्दु, दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । झलकै=चमकता है, दिखाई पड़ता है । लहै=लहता है, प्राप्त करता है । तिल=तिल से भी बहुत सूक्ष्म ज्योतिर्मय विन्दु । दशमी द्वारा=दशम द्वार, आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु । अनहद शब्द= जड़ात्मक मंडलों में उनके कंपनों से विविध प्रकार की होनेवाली ध्वनियाँ । धुन सत=सद्ध्वनि, सारशब्द । लौ=ध्यान । भवजल=भव-जलनिधि, संसार-समुद्र । साँची=सच्ची । राँची=रंजित रहनेवाला, डूबा हुआ रहनेवाला, रचा-पचा रहनेवाला, संलग्न, अनुरक्त, लीन, तत्पर, मग्न । (राँचना=रँगना, अनुरक्त होना, प्रेम करना; जैसे-तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ।। -मानस, बालकाण्ड ।

भावार्थ-पहले गुरु-नाम का मानस जप करके गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करो । इससे सुरत शुद्ध हो जाएगी और फिर दृष्टियोग करने पर ज्योतिर्मय विन्दु का प्रत्यक्षीकरण हो जाएगा ।।1।।
 दृष्टियोग करने के लिए अपनी दोनों आँखें बंद करके उनके मध्य सामने अंधकार में एकटक देखते रहो, इससे कभी-न-कभी दोनों दृष्टि-रेखाएँ एक विन्दु पर मिल जाएँगी ।।2।।
और सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में तिल (ज्योतिर्मय विन्दु) और एक तारा दिखाई देंगे । इसलिए तुम ख्याल से दशम द्वार कहलानेवाले सुखमन की ओर एकटक देखते रहो ।।3।।
प्रकाश-मंडल में आश्चर्यमय प्रकाश विद्यमान है और शब्द-मंडल में अनहद ध्वनियाँ (जड़ात्मक प्रकृति-मंडलों की विविध प्रकार की असंख्य ध्वनियाँ) होती हैं ।।4।।
अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि (सारशब्द) में ध्यान लगाना ही भवसागर तरने का सबसे उत्तम उपाय है अथवा अनहद ध्वनियों के बीच सद्ध्वनि में ध्यान लगाओ-संसार-सागर तरने के लिए ये सब (मानस जप-सहित मानस ध्यान, दृष्टियोग और शब्दयोग) ही उपाय हैं ।।5।।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि संसार-समुद्र तरने की सरल और सच्ची युक्ति (उपाय) वही प्राप्त करता है, जो दिन-रात गुरु-सेवा में रचा-पचा (अनुरक्त, लीन, संलग्न या डूबा हुआ) रहता है ।।6।।

टिप्पणी-1- गुरुमंत्र का मानस जप करना भी एक प्रकार का ध्यान ही है; क्योंकि मानस जप में जप के शब्दों का बारंबार स्मरण करते हैं । मानस जप से गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है । पद्य में पहले गुरु-ध्यान करने का आदेश दिया गया है । यहाँ गुरु-ध्यान के ही अन्तर्गत गुरुमंत्र का मानस जप करना भी ले लिया गया है । 97वें पद्य में मानस ध्यान करने के पूर्व मानस जप करने का आदेश तो है ही; देखें- श्श् अति पावन गुरुमंत्र, मनहि मन जाप जपो । उपकारी गुरु रूप को मानस ध्यान थपो ।।य् 2- दृष्टि देखने की शक्ति को कहते हैं । इसकी धार प्रकाशमयी होती है और जाग्रत्काल में आँखों के खुले रहने पर इनके दोनों तिलों-होकर बहिर्मुख होती है । रेखा के लिए कहा जाता है कि वह अनेक विन्दुओं से बनी होती है; उसमें सिर्फ लंबाई होती है; चौड़ाई अथवा मुटाई नहीं और दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है । दृष्टिधार पूर्णतः रेखा के समान है । जब दोनों दृष्टि-रेखाएँ दृष्टियोग का अभ्यास करने के क्रम में निर्दिष्ट स्थान पर अन्दर में जुड़ जाती हैं, तब ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है । 3- 94वें पद्य में कहा गया है कि दोनों दृष्टिधारों को आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में जोड़ने पर ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आता है और 119वें पद्य में लिखा गया है कि सुखमन (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु) में एक तारा दरसता है । इससे जानने में आता है कि ज्योतिर्मय विन्दु और एक तारा-दोनों आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में दिखाई पड़ते हैं । प्रस्तुत पद्य में तो स्पष्टतः कहा ही गया है कि सुखमन में तिल और तारा दिखाई पड़ते हैं । 4- 58वें पद्य के कुछ चरण चौपई (जयकरी) छन्द के हैं और कुछ चरण सखी छन्द के । चौपई छन्द के प्रत्येक चरण में 15-15 मात्रएँ होती हैं और अन्त में लघु-गुरु । सखी छन्द के प्रत्येक चरण में 14-14 मात्रएँ होती हैं और अन्त में गुरु-गुरु-गुरु या लघु-गुरु-गुरु ।


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