आरति संग सतगुरु के कीजै ।
अन्तर जोत होत लख लीजै ।।1।।
पाँच तत्त्व तन अग्नि जराई ।
दीपक चास प्रकाश करीजै ।।2।।
गगन थाल रवि शशि फल-फूला ।
मूल कपूर कलश धर दीजै ।।3।।
अच्छत नभ तारे मुक्ताहल ।
पोहप माल हिय हार गुहीजै ।।4।।
सेत पान मिष्टान्न मिठाई ।
चन्दन धूप दीप सब चीजैं ।।5।।
झलक झाँझ मन मीन मँजीरा ।
मधुर मधुर धुनि मृदंग सुनीजै ।।6।।
सर्व सुगन्ध उड़ि चली अकाशा ।
मधुकर कमल केलि धुनि धीजै ।।7।।
निर्मल जोत जरत घट माहीं ।
देखत दृि" दोष सब छीजै ।।8।।
अधर-धार अमृत बहि आवै ।
सतमत द्वार अमर रस भीजै ।।9।।
पी-पी होय सुरत मतवाली ।
चढ़ि-चढ़ि उमगि अमीरस रीझै ।।10।।
कोट भान छवि तेज उजाली ।
अलख पार लखि लाग लगीजै ।।11।।
छिन-छिन सुरत अधर पर राखै ।
गुरु-परसाद अगम रस पीजै ।।12।।
दमकत कड़क-कड़क गुरु-धामा ।
उलटि अलल ‘तुलसी’ तन तीजै ।।13।।
शब्दार्थ
-चास=बालकर । मूल=आरंभ । कपूर=जल्द जल उठनेवाला एक सुगंधित पदार्थ; यहाँ अर्थ है-ज्योतिर्मय विन्दु । अच्छत=अक्षत, बिना टूटा हुआ चावल जो पूजा में चढ़ाया जाता है । मुक्ताहल=मुक्ताफल, मोती । पोहप=पुहप, पुष्प, फूल । गुहीजै=गूँथ लीजिये । सेत=श्वेत, उजला; यहाँ अर्थ है-प्रकाश (अंतःप्रकाश)। मिष्टान्न (मिष्ट+अन्न)=रुचिकर खाद्य पदार्थ । मिठाई=खाने की कोई मीठी चीज । झलक=प्रकाश । झाँझ=झाल । मजीरा= श्श् बजाने के लिए काँसे की छोटी कटोरियों की जोड़ी, ताल ।य् (संक्षिप्त हिन्दी शब्द-सागर) सर्वसुगंध=इन्द्रिय-घाटों में बिखरी हुई समस्त चेतन-धाराएँ । (जैसे फूल का सार सुगंध है, उसी तरह शरीर का सार चेतन-धार है । इसीलिए चेतनधार ‘सुगंध’ कही गयी है ।) मधुकर=भौंरा; यहाँ अर्थ है-सुरत या मन । कमल=मंडल, अंदर का दर्जा या स्तर । केलि=क्रीड़ा, खेल । धीजै=धीरज धरता है, प्रसन्न होता है, संतुष्ट होता है, स्थिर होता है । अधर धार=आंतरिक आकाश की ज्योति और शब्द की धाराएँ । अमृत=चेतन तत्त्व । सतमत द्वार=सत्य धर्म का द्वार, दशम द्वार । (सतमत=सत्य धर्म; देखें- श्श् तुलसी सतमत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।य्-संत तुलसी साहब) उमगि=उमंग-युक्त होकर, आनन्दित होकर । अमीरस=अमृत रस, ज्योति और नाद की प्राप्ति से उत्पन्न आनंद । रीझै=रीझता है, प्रसन्न होता है, संतुष्ट होता है । कोट=कोटि, करोड़ । छवि=सौंदर्य । तेज (फाú)=तीव्र । अलख=जो देखा न जा सके, अरूप; यहाँ अर्थ है-सारशब्द, कैवल्य मंडल-सतलोक । लाग लगीजै=लाग लगा लीजिये, संबंध स्थापित कर लीजिये । अधर=गगन, आंतरिक आकाश, ब्रह्मांड । अगम रस=वह आनंद जो किसी इन्द्रिय से नहीं-चेतन आत्मा से प्राप्त किया जा सके । दमकत=दमकता है, चमकता है । कड़क-कड़क=घोर शब्द करते हुए । अलल (संú अलज)=एक पक्षी का नाम । तीजै=तज दीजिये, छोड़ दीजिये; तीनों ।
भावार्थ
-(सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के शब्दाें में)- श्श् सद्गुरु के संग प्रभु परमात्मा की आरती कीजिये और अंतर में ज्योति होती है, उसे देख लीजिये ।।1।।
तन के पाँच तत्त्वों की अग्नि को जला, दीपक बालकर प्रकाश कर लीजिये । इसका तात्पर्य यह है कि ध्यान-अभ्यास करके पाँच तत्त्वों के भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाशों को देखिये और इसके अनन्तर दीपक-टेम की ज्योति का भी दर्शन कीजिये ।।2।।
शून्य के थाल में सूर्य और चन्द्र फल-फूल हैं और इस पूजा के मूल या आरंभ में कपूर अर्थात् श्वेत ज्योतिर्विन्दु का कलश-स्थापन कीजिये ।।3।।
अंतराकाश में दर्शित सब तारे-रूप मोतियों का अच्छत (अरवा चावल, जिसका नैवेद्य पूजा में चढ़ाते हैं) और ऊपर कथित फूलों का हार गूँथकर हृदय में पहन लीजिये अर्थात् अपने अंदर में उन फूलों का सप्रेम दर्शन कीजिये ।।4।।
पान, मिठाई, मिष्टान्न, चंदन, धूप और दीप-सब-के-सब उजले यानी प्रकाश हैं ।।5।।
झलक अर्थात् प्रकाश में झाँझ, मजीरा और मृदंग की मीठी ध्वनियों को मीन-मन से अर्थात् भाठे से सिरे (नीचे से ऊपर-स्थूल से सूक्ष्म) की ओर चढ़नेवाले मन से सुनिये ।।6।।
शरीर में बिखरी हुई सुरत की सब धाररूप सुगंध आकाश में उठती हुई चलती है और उस मंडल में वह भ्रमर-सदृश खेलती हुई अनहद ध्वनि से संतुष्ट होती है ।।7।।
शरीर के अंदर पवित्र ज्योति जलती है । दृष्टि से दर्शन होते ही सब दोष नाश को प्राप्त होते हैं ।।8।।
अधर (आकाश) की धारा में अमृत बहकर आता है, उस धारा में सत्य धर्म के द्वार पर आरती करनेवाला अभ्यासी अमर-रस में भींजता है ।।9।।
उस अमर-रस को पीकर सुरत मस्त होती है और विशेष-से-विशेष चढ़ाई करके और उल्लसित होकर अमृत-रस में रीझती है ।।10।।
करोड़ों सूर्य के सदृश प्रकाशमान सौंदर्य प्रकाशित है, अलख (सारशब्द) के पार (शब्दातीत पद) को लखकर संबंध लगा लीजिये ।।11।।
सुरत को क्षण-क्षण अधर पर रक्खे, तो गुरु-प्रसाद से अगम रस पीवै ।।12।।
तुलसी साहब कहते हैं कि गुरुधाम (परम पुरुष पद) चमकता हुआ ध्वनित होता है । हे सुरत ! तुम अलल पक्षी की भाँति उलटकर अर्थात् बहिर्मुख से अंतर्मुख होकर तीनों शरीरों को छोड़ दो ।।13।।
टिप्पणी
-1- मीन भाटे से सिरे की ओर चढ़ जाता है । जो मन दृष्टियोग के अभ्यास के द्वारा पिड (नीचे-स्थूलता) से ब्रह्मांड (ऊपर-सूक्ष्मता) में पहुँच जाता है, वही ‘मन-मीन’ अर्थात् मीनवृत्तिवाला मन है; वही प्रकाश-मंडल में होनेवाली अनहद ध्वनियों को सुन पाता है । 2- कबीर-पंथ की एक पुस्तक ‘अनुराग-सागर’ के अनुसार, अलल पक्षी आकाश में बहुत ऊँचाई पर अंडा देता है । वह अंडा नीचे गिरते-गिरते फूट जाता है, उससे बच्चा निकल आता है । नीचे गिरते-गिरते ही उस बच्चे की आँखें खुल जाती हैं और पंख उग आते हैं, तब वह उलटकर अपनी माता के पास चला जाता है । 3- बाहर में पूजा करने के लिए थाल, प्रज्वलित दीपक, फल-फूल, कलश, अच्छत, पुष्पमाल, पान, मिष्टान्न, मिठाई, चंदन, धूप और झाँझ, मजीरे, मृदंग आदि वाद्य यंत्रें के वादन की व्यवस्था करनी पड़ती है; परंतु दृष्टियोग के द्वारा अंतर्मुख हुए साधक के लिए बाह्य पूजा की इन सब चीजों का कोई अर्थ नहीं रह जाता । संत तुलसी साहब ने अपनी इस आध्यात्मिक आरती में यही बतलाया है। 4- आरती के इस पद्य के प्रत्येक चरण में 32 मात्रएँ हैं; 16-16 पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण।
शब्दार्थ-
दृष्टि युगल कर=दोनों दृष्टि-किरणों को, दोनों दृष्टि-धारों को । सूक्ष्म अति=अत्यन्त छोटा । उज्ज्वल=उजला, प्रकाशमय । जगमग=प्रकाशित । रूप ब्रह्मांड=सूक्ष्म जगत् जहाँ तक ही रंग-रूप दिखाई पड़ते हैं , प्रकाश-मंडल । काया गढ़=शरीररूपी किला । भव=संसार, जन्म-मरण का चक्र । भ्रम=अज्ञानता, मिथ्या ज्ञान, माया । भेद=द्वैतता, अनेकता, जीव और ब्रह्म की भिन्नता का भाव । मल=अनात्म तत्त्व, असार तत्त्व, विकार, दोष । छीजै=क्षय कीजिये, धीरे-धीरे घटाइये, नष्ट कीजिये । भव खंडन=संसार को अर्थात् आवागमन के चक्र को नष्ट करनेवाला । निर्मल (निः+मल)=मल-रहित, पवित्र, पवित्र करनेवाला । अमृत रस=अक्षय आनंद, अविनाशी सुख, परमात्मा का आनन्द ।
भावार्थ-
अपने शरीररूपी मंदिर में ही आरती अर्थात् ईश्वरोपासना कीजिये । इसके लिए दोनों आँखों की दोनों किरणों को अर्थात् दोनों दृष्टि-धारों को एक करके सामने (आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु में) स्थिर कीजिये ।।1।
सिमटी हुई दृष्टि-धार को सामने स्थिर करने पर अत्यन्त छोटा ज्योतिर्मय विन्दु उदित हो आएगा । ज्योतिर्मय विन्दु के साथ-साथ और भी अलौकिक प्रकाश के अनेक रंग-रूप देखने में आएँगे ।।2।।
रूप-ब्रह्मांड (सूक्ष्म जगत्) विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति-रूपों से सतत प्रकाशित (शोभायमान) हो रहा है । उन विभिन्न रंगों की ज्योतियों और ज्योति-रूपों के बीच सामने के ज्योतिर्मय विन्दु का ध्यान करते हुए ज्योति-मंडल का परित्याग कर दीजिये ।।3।।
दृष्टियोग से सुरत-शब्द-योग आसान है । सुरत-शब्द-योग का बारंबार (तत्परतापूर्वक) अभ्यास करके अनहद ध्वनियों के बीच सारशब्द को पकड़ लीजिये ।।4।।
दृष्टियोग और शब्दयोग-इन दोनों युक्तियों से शरीररूपी किले (जेल-रूपी शरीर अर्थात् दृढ़ बंधन-रूप शरीर) का त्याग करके आवागमन के चक्र को, अज्ञानता (आत्मज्ञान-विहीनता) को, द्वैतता (अपने और परमात्मा के बीच बने हुए अंतर) को और सभी मनोविकारों को नष्ट कर डालिये ।।5।।
इस तरह की जानेवाली आरती (उपासना) जड़ावरणों से छुड़ाकर निर्मल करनेवाली (शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित करनेवाली) और जन्म-मरण के चक्र से छुड़ानेवाली है । सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि ऐसी आरती करके अमृृत रस पीजिये अर्थात् अविनाशी आनन्द (परमात्मा का आनन्द) प्राप्त कीजिये ।।6।।
टिप्पणी
1- मानव-शरीर ही परमात्मा का उसके द्वारा निर्मित सबसे सुंदर मंदिर है । इसलिए परमात्मा की उपासना अपने शरीर के ही अंदर करनी चाहिये । इसके लिए कोई बाहरी उपचार या बाहरी भ्रमण करना व्यर्थ है । 2- 139वें पद्य का प्रथम चरण चौपाई के दो चरणों से मिलकर बना हुआ है और नीचे के प्रत्येक चरण में 32 मात्रएँ हैं; 16-16 पर यति और अन्त में दो गुरु वर्ण ।
Buy Maharshi Menhi Padawali on Amazon https://amzn.to/2OiJ1pT
Follow us on :-
YouTube Channel
https://www.youtube.com/c/GuruMaharshiMenhi
our whats app group link
https://chat.whatsapp.com/45UwryfcdKBC1eXIsqFPk0
Facebook
https://www.facebook.com/Santmats/
#Santmat #Maharshi #Menhi
Twitter
https://twitter.com/GuruMenhi
website:- https://gurumaharshimenhi.blogspot.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें