भजन नंबर 105
सतगुरु चरण टहल नित करिये नर तन के फल एहि है। युग-युग जग में सोवत बीते सतगुरु दिहल जगाय हे ॥ १ ॥ आँधरि आँखि सुझत रहे नाहीं थे पड़े अन्ध अचेत हे । करि किरपा गुरु भेद बताए दृष्टि खुलि मिटल अचेत हे ॥२॥ भा परकाश मिटल अँधियारी सुक्ख भएल बहुतेर हे । गुरु किरपा की कीमत नाहीं मिटल चौरासी फेर हे ॥३॥ धन धन धन्य बाबा देवी साहब सतगुरु बन्दी छोर हे । तुम सम भेदि न नाहिं दयालू 'मेँहीँ' कहत कर जोरि हे ॥४॥
यह भजन महर्षि मेंही द्वारा रचित पदावली से लिया गया है
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